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द्वार २
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-- अन्यमत-अङ्कश से पीड़ित हाथी की तरह सिर को उंचा-नीचा
करते हुए वन्दन करना। पूर्वोक्त दोनों मत सूत्रानुयायी नहीं है
(तत्त्वं केवलीगम्य)। ७. कच्छवरिंगिय - कछुए की तरह आगे-पीछे खिसकते हुए वन्दन करना। ८. मच्छुव्वत्त
- एक आचार्य को वन्दन करके पास में बैठे हुए दूसरे आचार्य
को वन्दन करने के लिए वहाँ बैठे-बैठे ही मत्स्य की तरह शरीर
पलट कर वन्दन करना। ९. मणसापउट्ठ - प्रद्वेषपूर्वक वन्दन करना। प्रद्वेष दो प्रकार से :
(१) आत्मप्रत्यय - गुरु द्वारा शिष्य को साक्षात् उपालंभ देने से उत्पन्न प्रद्वेष । (२) परप्रत्यय . - गुरु द्वारा शिष्य के सम्बन्धी, मित्रादि के समक्ष शिष्य के सम्बन्ध
में अप्रिय बात कह देने से उत्पन्न प्रद्वेष । १०. वेड्याबद्ध - घुटनों पर हाथ टेककर, घुटनों से बाहर या गोद में हाथ रखकर,
बायें पैर को दोनों हाथों के बीच रखकर अथवा दायें पैर को
दोनों हाथों के बीच रखकर वन्दन करना। ११. भयसा
- यदि मैं वन्दन नहीं करूँगा तो गुरु मुझे गच्छ बाहर कर देंगे,
इस भय से वन्दन करना। भय के अन्य हेतु भी यथासंभव
समझ लेना चाहिए। १२. भयन्त
हे आचार्य महाराज ! हम आपको वन्दन करने के लिये खड़े हैं, इस तरह गुरु पर एहसान चढ़ाते हुए वन्दन करना अर्थात् गुरु मेरे अनुकूल हैं, भविष्य में भी मेरे अनुकूल रहेंगे, इस अभिप्राय
से वन्दन करना। १३. मित्ती
- आचार्य के साथ मैत्री (प्रीति) चाहते हुए वन्दन करना। १४. गारव
- 'वन्दनादि समाचारी में मैं कुशल हूँ।' अन्य साधु ऐसा समझे।
इस प्रकार प्रशंसा पाने के लिये आवर्तादि व्यवस्थित करते हुए
वन्दन करना। १५. कारण
- ज्ञान, दर्शन, चारित्र के लाभ को छोड़कर इहलौकिक वस्त्र, कम्बल
आदि वस्तुओं की अभिलाषा से गुरु को वन्दन करना। प्रश्न-ज्ञानादि की चाह से वन्दन करना शुद्ध वन्दन है क्या?
उत्तर-यदि वन्दन के पीछे यह आशय हो कि मैं ज्ञानादि को प्राप्त करूँगा तो लोग मुझे मानेंगे, पूजेंगे, मेरा गौरव करेंगे, इस प्रकार ज्ञानादि के लिये किया जाने वाला वन्दन भी अशुद्ध ही है। केवल ज्ञानादि की प्राप्ति के लिये किया जाने वाला वन्दन शुद्ध वन्दन है। आदि पद से दर्शन व चारित्र का ग्रहण होता है।
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