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द्वार २
मुनि को वन्दन करने हेतु अवंति गये। संध्या हो जाने से वे नगरी के बाहर ही ठहर गये। किसी श्रावक के द्वारा शीतलसूरि को मुनियों (भानजे) के आगमन का समाचार मिला ।
रात में कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े उन चारों मुनियों को केवलज्ञान हो गया। सवेरे सूर्योदय के बाद शीतलसूरि उन चारों के आने की प्रतीक्षा करते रहे किन्तु एक प्रहर दिन बीतने के बाद भी जब वे नहीं आये तो बेसब्र होकर वे स्वयं उनसे मिलने के लिये चल पड़े। शीतलसूरि के समीप आने पर भी वे चारों केवलज्ञानी मुनि यथावत् ही खड़े रहे। एकदम पास आने के बाद भी उन चारों मुनियों का यह व्यवहार देखकर शीतलसूरि से नहीं रहा गया और वे बोले, 'क्या तुम्हें वन्दना भी मैं ही करूंगा ? मुनियों ने बड़ी सौम्यता से जवाब दिया कि 'सुखं भवतु ।' वास्तविकता से अनजान शीतलसूरि यह सुनकर बड़े क्रुद्ध हुए और उन्हें दुष्ट व निर्लज्ज समझकर आवेश में वन्दन करने लगे। तब केवलज्ञानी मुनियों ने कहा- 'आवेशवश होने के कारण यह तुम्हारा द्रव्य वन्दन है, भाव वन्दन नहीं । अब भाव वन्दन करिये।' मुनियों की यह बात सुनकर शीतलसूरि एकदम चौंक पड़े । आश्चर्य हुआ कि इन्होंने मेरे भावों को कैसे जाना? उन्होंने पूछा - 'तुमने मेरे भावों को कैसे जाना ?' मुनियों ने केवलज्ञान होने की बात कही । यह सुनकर शीतलसूरि को घोर पश्चात्ताप हुआ कि मैंने केवलज्ञानियों की भयंकर आशातना की है । पश्चात्ताप करते हुए केवलज्ञानियों को उन्होंने इस प्रकार वन्दन किया कि उन्हें भी केवलज्ञान हो गया । शीतलाचार्य का प्रथम बार का क्रोधयुक्त वन्दन द्रव्यवन्दन था। दूसरी बार का
वन्दन भाव- वन्दन था ।
२. 'क्षुल्लक' का दृष्टान्त
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एक गच्छ में गुणसुन्दर नाम के आचार्य थे। एक बार अपना अन्तिम समय नजदीक जानकर एक सुयोग्य 'क्षुल्लक' मुनि को संघ की सहमति से अपने पद पर प्रतिष्ठित किया । गच्छ में सभी ने उनकी आज्ञा को शिरोधार्य किया और वे भी स्थविर मुनियों के पास ज्ञानाभ्यास करने लगे । एकदा मोहनीय के प्रबल उदय से क्षुल्लकमुनि को चारित्र छोड़ने का भाव पैदा हुआ । वे स्थंडिल के बहाने मुनियों के साथ जंगल की ओर गये। साथ में आये हुए मुनियों को दूर खड़ा करके स्वयं जंगल में आगे बढ़ चले। चलते-चलते पुष्प फलादि से समृद्ध एक वन खण्ड में आये । वहाँ कुछ देर विश्राम के लिये बैठे। वहाँ उन्होंने देखा कि बकुलादि उत्तम वृक्षों को छोड़कर लोग नीरस शमीवृक्ष की पूजा कर रहे हैं। यह देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, किन्तु सोचने पर स्पष्ट हुआ कि शमीवृक्ष की पूजा के पीछे इसके चारों ओर घिरी हुई पीठिका ही कारण है। बस इस दृश्य ने उनके भावों को एकदम मोड़ दिया। वे सहसा संभले और अपने जीवन के बारे में सोचने लगे कि मेरे आदर-सत्कार का कारण भी गुरु प्रदत्त यह पद है, अन्यथा मेरे से भी अधिक ज्ञानी, गुणी, संयमी मुनि गच्छ में विद्यमान हैं I उन्हें अपने दुर्भाव पर घोर पश्चात्ताप हुआ और वे पुनः वसति में लौट आये । गीतार्थ मुनियों के संमुख अपने दुर्भाव की अन्तःकरण - पूर्वक आलोचना की। चारित्र त्याग की इच्छा के समय क्षुल्लकमुनि का रजोहरणादि उपधि का संचय द्रव्य चितिकर्म और प्रायश्चित्त के समय रजोहरणादि उपधि का संचय भाव चितकर्म हुआ ।
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