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प्रवचन-सारोद्धार
वन्दनादि शुभ-क्रिया तथा तापसादि के योग्य उपकरणों का संचय करके
तापस-योग्य क्रिया द्रव्य चितिकर्म है। (ii) भाव चितिकर्म–उपयोगयुक्त सम्यक्त्वी की रजोहरणादि उपकरणपूर्वक
वन्दनादि शुभक्रिया भाव चितिकर्म है। (३) कृति कर्म-वन्दन-क्रिया, नमन क्रिया। यह दो प्रकार का है:(i) द्रव्य कृतिकर्म–उपयोग शून्य सम्यक्त्वी की तथा निह्नवादि की नमन
क्रिया। (ii) भाव कृतिकर्म-उपयोग युक्त सम्यक्त्वी की नमन क्रिया। (४) पूजा कर्म-मन, वचन, काया का प्रशस्त व्यापार। यह भी दो प्रकार का है:(i) द्रव्य पूजा कर्म-उपयोग शून्य सम्यक्त्वी एवं निह्नव आदि का प्रशस्त
व्यापार । (ii) भाव पूजा कर्म-उपयोग-युक्त सम्यक्त्वी का प्रशस्त व्यापार । (५) विनय कर्म-अष्टविध कर्म का नाश करने वाली गुरु के अनुकूल प्रवृत्ति । यह भी
दो प्रकार की है(i) द्रव्य विनय कर्म--उपयोग शून्य सम्यक्त्वी एवं निह्नव आदि की गुरु के
अनुकूल प्रवृत्ति। (ii) भाव विनयकर्म-उपयोग युक्त सम्यक्त्त्वी की गुरु के अनुकूल प्रवृत्ति ॥
१२७ ॥ १२. पाँच दृष्टान्त
(१) शीतलाचार्य का दृष्टान्त
श्रीपुर नगर में शीतल नाम का राजा था। उसकी गति हंस की तरह सुन्दर, उसका मातृ-पितृ पक्ष हंस की दोनों पाँखों की तरह उज्ज्वल एवं निष्कलङ्क था। जैसे हंस क्षीरसागर में निवास करता है, वैसे राजा भी सर्वज्ञ के शासन रूपी क्षीरसागर में निरन्तर अवगाहन करता था । उस राजा के परम-सौभाग्य-शालिनी शृंगारमञ्जरी नाम की एक बहन थी। शृंगारमञ्जरी के पति का नाम विक्रमसिंह था। उसके शुभ लक्षणों से युक्त चार पुत्र थे। कुछ समय पश्चात् धर्मघोषसूरि के उपदेश से विरक्त बने राजा ने दीक्षा ग्रहण की। शीतल मुनि गुरु निश्रा में रहकर अध्ययन करते हुए परम गीतार्थ बने। गुरु ने शीतल मुनि को सुयोग्य जानकर आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया।
इधर अपनी माता की प्रेरणा व मामा के त्याग-वैराग्य की प्रशंसा सुनकर शृंगारमञ्जरी के चारों पुत्रों ने स्थविर मुनि के पास दीक्षा ग्रहण कर ली।
ज्ञान-ध्यान करते हुए वे भी परम गीतार्थ बने। एक बार वे चारों ही विचरण करते हुए मामा
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