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________________ द्वार २ ६४ 2014 164560301225: १. धर्म का अन्तराय, २. वन्दन की अनवधारणा, ३. प्रकोप, ४. आहार का अन्तराय, ५. लज्जा के कारण, स्थंडिल आदि का अवरोध ।। १२४ ।। गुरु को ऐसे समय वन्दन करना चाहिये१. प्रशांत हों। २. आसन पर बैठे हों। ३. उपशान्त (क्रोधादि प्रमाद रहित अप्रमत्त) हों। ४. 'छन्देन' इत्यादि वचन कहने को तत्पर हों ॥ १२५ ॥ १०. अवग्रह-अनुज्ञापित क्षेत्र। चारों दिशाओं में साढ़े तीन हाथ का गुरु का अवग्रह है, उसमें गुरु की अनुज्ञा बिना प्रवेश नहीं करना चाहिये। नाम, स्थापनादि भेद से इसके छ: भेद हैं। छ: अवग्रहनाम-'अवग्रह' ऐसा किसी का नाम । स्थापना-यह अवग्रह है, ऐसी स्थापना करना। द्रव्य-मुक्ताफलादि को ग्रहण करना। क्षेत्र-जो जिस क्षेत्र को ग्रहण करे वह क्षेत्रावग्रह है। अवग्रहीत क्षेत्र से लेकर एक कोश अधिक एक योजन तक के क्षेत्र का अवग्रह में समावेश होता है। काल-जिस काल में जितने समय तक एक स्थान में रहने का नियम हो उतना समय वहाँ रहना काल-अवग्रह है। जैसे शीतोष्ण काल में एक मास का अवग्रह है, वर्षाकाल में चार मास का अवग्रह है। अर्थात् सर्दी व गर्मी में साधु एक स्थान पर एक महीना रह सकता है व वर्षाकाल में चार महीना रह सकता है अत: यह काल की दृष्टि से अवग्रह है। भाव-प्रशस्त, अप्रशस्त । ज्ञानादि प्रशस्त अवग्रह हैं। क्रोधादि अप्रशस्त अवग्रह हैं। अवग्रह के अन्य भी प्रकार हैं, जो आगे कहे जायेंगे ॥ १२६ ॥ ११. पाँच अभिधान (१) वन्दन कर्म-प्रशस्त मन, वचन, काया के द्वारा गुरु को वन्दन करना। इसके दो भेद हैं(i) द्रव्य वन्दन-उपयोग-शून्य सम्यक्त्त्वी का वन्दन । (ii) भाव-वन्दन-उपयोग-युक्त सम्यक्त्वी का वन्दन । (२) चितिकर्म-रजोहरणादि उपधि-सहित वन्दनादि शुभ-क्रिया से शुभ कर्म का संचय कराने वाला कर्म अथवा कारण में कार्य का उपचार करने से 'रजोहरण' आदि उपधि का संग्रह करना भी चितिकर्म है। इसके दो भेद हैं:(i) द्रव्य चितिकर्म-उपयोग-शून्य सम्यक्त्वी की रजोहरणादि उपधि-पूर्वक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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