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________________ प्रवचन-सारोद्धार ६३ 4AAREER15000 (१) संक्लिष्ट-हिंसादि महास्रवों में रत, ऋद्धिगारव, रसगारव एवं सातागारव से गर्वित संक्लिष्ट है। यह दो प्रकार का है(क) स्त्री का सेवन करने वाला 'स्त्री संक्लिष्ट' (ख) गृहस्थ सम्बन्धी पुत्र-पुत्री, पशु, धन, धान्यादि की चिन्ता में रत 'गृहि संक्लिष्ट'। (२) असंक्लिष्ट-जिसके साथ रहे वैसा आचरण करने वाला। संविज्ञ के साथ संविज्ञ जैसा, पार्श्वस्थ के साथ पार्श्वस्थ जैसा आचरण करने वाला। यह प्रियधर्मी व अप्रियधर्मी दो प्रकार का होता है ॥ ११६-१२० ॥ ५. यथाच्छन्द-सूत्र से विपरीत आचरण एवं प्ररूपणा करने वाला 'यथाच्छन्द' है, इसे ‘इच्छाच्छन्द' भी कहते हैं। जिनेश्वर देव के वचन से विरुद्ध, स्वबुद्धि से कल्पित सिद्धान्त-बाह्य जो भी है, वह उत्सूत्र कहलाता है। स्वयं उत्सूत्र का आचरण करने वाला तथा दूसरों के प्रति उत्सूत्र की प्ररूपणा करने वाला 'यथाच्छन्द' • गृहस्थ सम्बन्धी कार्यों को करने, कराने एवं अनुमोदन करने वाला (परचिन्तारत) • किसी के अल्प अपराध में भारी क्रोध करने वाला, बार-बार झिड़कने वाला। • आगम से निरपेक्ष केवल अपनी मति-कल्पना से स्वाध्याय आदि किसी एक सरल अनुष्ठान को पकड़कर शेष आराधना के प्रति उपेक्षा बरतने वाला, सुखलिप्सु एवं विगयसेवी । • ऋद्धि, रस, साता गारव से गर्वित यथाछन्द है। कुछ लोग पार्श्वस्थ को सर्वथा अचारित्री मानते हैं; किन्तु उनका कथन ठीक नहीं है, क्योंकि जब उसमें चारित्र का सर्वथा अभाव ही है तो उसके सर्वत: और देशत: ये दो भेद करना ही व्यर्थ है। पार्श्वस्थ के दो भेद करने से सिद्ध होता है कि वह सातिचार चारित्री भी होता है। यह कल्पनामात्र नहीं है, किन्तु निशीथचूर्णि में कहा है- 'जो सूत्रपौरूषी, अर्थपौरूषी नहीं करता, जिसका दर्शन अतिचार युक्त है, जो निरतिचार-चारित्र का पालन नहीं करता, ऐसा पार्श्वस्थ, सुखपूर्वक रहता है।' इससे स्पष्ट है कि पार्श्वस्थ में सर्वथा चारित्र का अभाव नहीं होता किन्तु सातिचार चारित्र की सत्ता होती है ॥ १२१-१२३ ।। ९. पाँच प्रतिषेध-जिन स्थानों में वन्दना नहीं होती वे पाँच हैं। जिन्हें वन्दना कर रहे हैं वे यदि १. व्यग्र (व्याक्षिप्त) हों अर्थात् सभा में देशनादि देने में दत्तचित्त हों। २. पराड्.मुख हो अर्थात् संमुख बैठे हुए न हों । ३. प्रमत्त हों (क्रोध, निद्रादि प्रमाद से युक्त) ४. आहार करते हों। ५. नीहार-उच्चार करते हों। • ऐसे समय वन्दन करने से क्रमश: निम्न दोष लगते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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