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द्वार २
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+ (य) तप-मैं भी तपस्वी हैं। * (र) गण-मैं भी मल्लकगण का हूँ। 'गण' के स्थान पर किसी प्रति में 'गुण' ऐसा पाठ है, वह 'निशीथ' आदि के पाठ का विरोधी होने
से अशुद्ध है। * (ल) सूत्र- मैंने इतने सूत्रों का अभ्यास किया है, इत्यादि कहकर
भिक्षा ग्रहण करें। • कुल = पिता सम्बन्धी उग्रादिकुल। शिल्प = आचार्य द्वारा सीखा हुआ विज्ञान । • कर्म = स्वयं सीखा हुआ। सूत्र = कालिक आदि ।। ११४ ।।।
(vi) कल्ककुरुका-कपट से दूसरों को ठगना। अन्यमते- कल्क-कुछ भागों में या पूरे शरीर पर लोद्र वगेरे का उबटन लगाना ।
त्वचा सम्बन्धी रोगों में चमड़ी पर क्षारादि लगाना। कुरुका-हाथ-पैर आदि धोना या पूरा स्नान करना अर्थात् उबटनादि लगाकर
स्नान करना। (vii) लक्षण-स्त्री पुरुष के शारीरिक लक्षणों को बताना । यथा
अस्थिष्वाः सुखं मांसे, त्वचि भोगा स्त्रियोऽक्षिषु । गतौ यानं स्वरे चाज्ञा सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम् ।। हड्डियों के चिकनेपन में धन, मांस में सुख, त्वचा में भोग, नेत्रों में नारी,
गति में वाहन, स्वर में आज्ञा तथा सत्त्व में सभी प्रतिष्ठित हैं। (viii) विद्यामंत्र-विद्या, मंत्र आदि का स्वयं प्रयोग करना या दूसरों को बताना।
विद्या-जिसकी अधिष्ठात्री देवी हो। मंत्र-जिसका अधिष्ठायक देव हो। अथवा साधना करने से सिद्ध हो, वह विद्या। बिना साधना के ही सिद्ध हो, वह मन्त्र। मूलकर्म-पुरुषद्वेषिणी को अद्वेषिणी बनाना और अद्वेषिणी को द्वेषिणी बनाना। गर्भपात, गर्भधारण आदि कराना । चूर्णयोग-किसी को वश करने के लिये चूर्णादि का प्रयोग करना। इनके अतिरिक्त अन्य भी शरीर-विभूषादि, चारित्र को दूषित करने वाले काम
करने वाला चारित्रकुशील है ॥ ११५ ।। ४. संसक्त-गुण और दोष दोनों से मिश्रित । जिस तरह गाय के चारे में झूठा और
बिना झूठा दोनों तरह का खल-कपास होता है, वैसे संसक्त साधु गुण-दोष दोनों से मिश्रित संयम वाला होता है।
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