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प्रवचन-सारोद्धार
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करने वाला, बिना वन्दन के ही प्रत्याख्यान करने वाला, इस प्रकार समाचारी का
पालन न करने वाला या विपरीत पालन करने वाला 'देशावसन्न' है ।। १०६-१०८ ॥ ३. कुशील-'कुत्सितं शीलं अस्य इति कुशील: ।' कुत्सित चारित्रवाला कुशील है। उसके तीन भेद
हैं
(३)
(१) ज्ञानकुशील-काल-विनय इत्यादि अष्टविध ज्ञानाचार की विराधना करने वाला
ज्ञानकुशील है। दर्शनकुशील-नि:शंकिय...इत्यादि अष्टविध दर्शनाचार की विराधना करने वाला दर्शनकुशील है। चारित्र-कुशील–१. कौतुककर्म, २. भूति-कर्म, ३. प्रश्नाप्रश्न, निमित्त, ४. आजीविका, ५. कल्ककुरुका, ६. लक्षण, ७. विद्या, ८. मंत्रादि के प्रयोग से चारित्र को मलिन बनाने वाला चारित्रकुशील है ।। १०९-१११ ।। (i) कौतुक लोकप्रियता अर्जित करने के लिये या संतान प्राप्ति के लिये
त्रिपथ, चतुष्पथ पर अनेक औषधियों से मिश्रित जलादि द्वारा स्त्रियों को स्नान कराना, उनके शरीर पर जड़ी बूटी आदि बाँधना अथवा आश्चर्यकारी करतब दिखाना, जैसे बड़े-बड़े गोले मुँह से निगलकर कान-नाक आदि से पुन: निकालना, मुँह से आग निकालना इत्यादि कौतुक कर्म है। भूतिकर्म-ज्वर आदि रोगों के ताबीज, डोरे आदि करना, रोगी की शय्या
को चारों ओर से अभिमंत्रित करना आदि ॥ ११२ ।। (iii) प्रश्नाप्रश्न-पूछे गये या बिना पूछे गये प्रश्नों का कर्णपिशाचिनी आदि
विद्या द्वारा या मंत्राभिषिक्त घंटिका द्वारा स्वप्न में समाधान करना ॥ ११३ ॥ (iv) निमित्त-भूत, भविष्य या वर्तमान विषयक लाभालाभ बताना । (देखो २५७वाँ
द्वार) आजीवक-जाति आदि के द्वारा आजीविका चलाने वाला। * (अ) जाति उपजीवी-भीनमाल जाति वाले सेठ को देखकर कहे कि
मैं भी भीनमाल जाति का हूँ, यह सुनकर सेठ भी साधु को अपनी
जाति का समझ कर भिक्षादि से उसका सत्कार करे । * (ब) कुलोपजीवी-'मैं भी तुम्हारे कुल का हूँ' ऐसा कहकर भिक्षा
ग्रहण करे। * (स) शिल्प-यह शिल्प मैंने भी इसी आचार्य से सीखा है अथवा
मुझे भी आता है। + (द) कर्म-यह काम मुझे भी आता है।
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