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प्रवचन-सारोद्धार
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- गुरु-मैं भी प्रमादवश हुए दोषों के लिये तुम से क्षमा माँगता
हूँ॥ १०१ ॥ ७. अधिकारी-वन्दन करने योग्य । आचार्य आदि पाँच वन्दन करने योग्य हैं। कहा है—'कर्म निर्जरा
के लिये आचार्य आदि पाँचों को वन्दन करना चाहिये। (i) आचार्य-कल्याण के इच्छुक आत्मा जिनकी सेवा करते हैं वे आचार्य हैं। आचार्य
सूत्र-अर्थ के ज्ञाता, प्रशस्त लक्षण वाले, स्थैर्य, धैर्य व गांभीर्यादि गुणों से भूषित
होते हैं। (ii) उपाध्याय—जिनके पास आकर शिष्यगण अध्ययन करते हैं वे उपाध्याय हैं। कहा
है--जो सम्यग् दर्शन, ज्ञान व चारित्र से सम्पन्न, सूत्र, अर्थ व तदुभय के ज्ञातः,
आचार्य पद के योग्य तथा आगमों की वाचना देने वाले हैं, वे उपाध्याय हैं। (iii) प्रवर्तक-तप, संयमादि योगों में से जो जिसके लिये योग्य है उसे वहाँ प्रवृत्त करने
वाले तथा गच्छ के हितचिन्तक प्रवर्तक हैं। (iv) स्थविर–रत्नत्रय की आराधना में शिथिल बनते हुए साधुओं को इहलोक-परलोक
सम्बन्धी दुःखों व कष्टों को बताकर रत्नत्रय में स्थिर करने वाले स्थविर हैं।
(v) रत्नाधिक—जो दीक्षा पर्याय में बड़े हों ।। १०२ ॥ ८. अनधिकारी-वन्दन के अयोग्य । पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त व यथाच्छंद ये पाँच जिनशासन
में अवन्दनीय हैं। १. पासत्थ-इस शब्द से संस्कृत के दो शब्द निकलते हैं- पार्श्वस्थ व पाशस्थ ।
• पार्श्वस्थ-ज्ञान-दर्शन व चारित्र के समीप रहते हुए भी उनका उपयोग कुछ भी नहीं करने
वाला। अर्थात् रत्नत्रय की आराधना से रहित।। • पाशस्थ-कर्मबंध के हेतुभूत मिथ्यात्व आदि के जाल में फँसा हुआ। इसके दो भेद
हैं-सर्वपासत्थो और देशपासत्थो ।
सर्वपासत्थ-ज्ञान-दर्शन चारित्रादि गुणों से रहित, मात्र वेषधारी। • देशपासत्थ-निष्कारण शय्यातरपिंड, राजपिंड, नित्यपिंड का भोक्ता, कुलनिश्रा रखने वाला,
स्थापनाकुलों में जाने वाला। • शय्यातर-पिंड-बसति' दाता का आहार । • अग्रपिंड-पकाकर सीधे नीचे उतारे गये भात आदि का ऊपरी भाग। • नित्यपिंड-आप मेरे घर आना, मैं आपको नित्य भिक्षा दूंगा। इस प्रकार निमन्त्रण देने वाले
के घर का आहार। • स्थापना-कुल-गुरु, आचार्य आदि की भिक्षा के योग्य कुल। • कुलनिश्रा-अपने द्वारा प्रतिबोधित कुलों से ही भिक्षा ग्रहण करना ॥ १०३-१०५ ।।
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