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द्वार २
हे भगवन् ! साधु-पुरुषों की वन्दना, उपासना का क्या लाभ है ? हे गौतम! साधु-पुरुषों की वन्दना, उपासना के १० लाभ (फल) हैं
१. श्रवण फल २. ज्ञान- फल ३. विज्ञान- फल ४. प्रत्याख्यान फल ५. संयम-फल ६. आश्रवरोध - फल अर्थात् संवर ७. तप-फल ८. निर्जरा-फल ९. अक्रिया-फल १० सिद्धिगमन-फल ॥
१०० ॥
६. गुरुवचन - वंदन के इच्छुक शिष्य द्वारा वन्दन की अनुज्ञा माँगने पर गुरु जो प्रत्युत्तर देते है वे गुरुवचन कहलाते हैं और वे छ: हैं ।
चूर्णिकारमते
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१. शिष्य-' इच्छामि खमासमणो...निसीहिआए' वन्दन करने की आज्ञा माँगना ।
गुरु — 'छंदेण' वन्दन कराना मुझे इष्ट है, कहकर आज्ञा देना । यदि गुरु क्षोभ या बाधा युक्त हैं तो 'प्रतीक्षस्व'- प्रतीक्षा करो कहते हैं । क्षोभ या बाधा का कारण बताने योग्य होता है तो बताते हैं अन्यथा नहीं ।
वृत्तिकारमते- - वन्दन कराना है तो 'छंदेण' ही कहते हैं पर क्षोभादि है तो 'त्रिविधेन' अर्थात् मन, वचन,
काया से वन्दन करना निषिद्ध हैं, ऐसा कहते हैं । तब शिष्य संक्षेप में वन्दन करता है । * २. शिष्य - 'अणुजाणह मे मि उग्गहं' गुरु के अवग्रह में प्रवेश करने
की आज्ञा माँगना ।
गुरु - 'अणुजाणामि' अवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा देना । + ३. शिष्य - निस्सीहिदिवसो वइक्कंतो' इन बारह पदों के द्वारा गुरु को रात्रि या दिवस सम्बन्धी सुखशाता पूछना ।
गुरु - 'तहत्ति' जैसा तुम कह रहे हो, वैसा ही मेरा रात अथवा दिन व्यतीत हुआ है /
* ४. शिष्य - ' जत्ता भे' आपकी संयम यात्रा सुखपूर्वक चल रही है ? गुरु - 'तुब्भंपि वट्टए' हाँ, मेरी तो सुखपूर्वक चल रही है, पर तुम्हारी भी सुखपूर्वक चल रही न ?
+ ५. शिष्य - 'जवणिज्जं च भे' आपके शारीरिक व मानसिक शाता है ? गुरु - ' एवं ' हाँ, शाता है।
* ६. शिष्य - 'खामेमि खमासमणो ! देवसिअं वइक्कमं' हे क्षमाश्रमण ! आज दिन या रात में मेरे से आपका जो कुछ भी अपराध हुआ हो तो मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ ।
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