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प्रवचन-सारोद्धार
प्रवचनसारोद्धार मूल ग्रन्थ १५९९ गाथाओं में संकलित है। सिद्धसेनसूरि ने मूल ग्रन्थ के प्रत्येक अंश को स्पष्ट करते हुए विशदीकरण के साथ १८००० श्लोक परिमाण में इसकी रचना की है। सामान्य विषयों के वर्णन को टीकाकार ने सामान्य रूप से ही वर्णित किया है, जबकि आगम के गहन विषयों को अन्य ग्रन्थों के उद्धरण देते हुए प्राञ्जल शैली में विशदता के साथ वर्णन किया है। यह उनके अगाध ज्ञान का सूचक है।
सिद्धसेनसूरि ने इस टीका में स्वरचित अन्य कृतियों का उल्लेख भी किया है, जो आज अप्राप्त
१. पद्मप्रभचरित्र—उल्लेख, प्रवचनसारोद्धार पद्य १५५३ की टीका में, भाषा प्राकृत । २. समाचारी-उल्लेख, प्रवचनसारोद्धार पद्य १५७० की टीका में। ३. स्तुति—भाषा प्राकृत, उल्लेख, प्रवचनसारोद्धार टीका पद्य ६६० में ।
टीका का रचना संवत्–मुद्रित संस्करणों में इस टीका का रचनाकाल करिसागररविसंख्ये के • आधार पर १२४८ माना जाता है। सागर को ४ मानने पर १२४८ होता है और ७ मानने पर १२७८ । भारतीय प्राच्य तत्त्व समिति, पिण्डवाडा के प्रकाशन में 'करि' के स्थान पर 'कर' पाठान्तर मिलता है। यह पाठान्तर जैसलमेर भण्डार की १२९५ की लिखित ताड़पत्रीय प्रति और जैन विद्या शाला, अहमदाबाद की १५५१ की लिखित प्रति में प्राप्त होता है। इसके आधार से कर शब्द २ का वाचक होने से रचना संवत् १२४२ प्रमाणित होता है, अत: इस टीका का रचनाकाल १२४२, १२४८, १२७८ के मध्य का माना जा सकता है, तथापि प्राचीन पाठान्तर के आधार पर इसका रचनाकाल १२४२ मानना ही अधिक उपयुक्त एवं संगत है।
अनुवादिका-इस विशालकाय ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद न होने से हिन्दी भाषी विद्वान आज तक इसके अध्ययन से वंचित रहे । इस ग्रन्थ का अनुवाद विदुषी साध्वी श्री हेमप्रभाश्रीजी ने किया है। श्री हेमप्रभाश्रीजी खरतरगच्छ की परम्परा में प्रवर्तिनी प्रेममूर्ति श्री प्रेमश्रीजी महाराज की प्रशिष्या अनुभवरसनिमग्ना श्री अनुभवश्रीजी महाराज की शिष्या हैं। आगमज्ञा हैं, ज्योतिर्विद् भी हैं और प्रवचनपटु भी। साध्वीजी ने इस ग्रन्थ का यह अनुवाद शब्दश: न कर भावानुवाद के रूप में किया है। दार्शनिक संस्कृत ग्रन्थों का यदि शब्दश: अनुवाद किया जाए तो वह पाठक के लिए बोझिल बन जाता है। इस भावानुवाद में कहीं प्रश्नोत्तर शैली अपनाई गई है और कहीं सरस एवं प्राञ्जल शैली में इसका शब्दश: अनुवाद और भावानुवाद दिया भी है। अनुवाद सुरुचिपूर्वक पठन योग्य है। संस्करण
प्रवचनसारोद्धार सिद्धसेनीय टीका के साथ सर्वप्रथम हीरालाल हंसराज, जामनगर की
ओर. प्रकाशित हुआ था। इसका द्वितीय संस्करण देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत की ओर से विक्रम संवत् १९७८ में दो भागों में प्रकाशित हुआ था।
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