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सम्पादकीय
श्लोक परिमाण में रचना की। समस्त टीका एवं कथानक प्राकृत गाथाओं में निर्मित है, इससे स्पष्ट है कि इनका प्राकृत भाषा पर पूर्ण आधिपत्य था। आम्रदेवसूरि के अनेकों शिष्य थे, जिनमें प्रमुख साहित्यकार के रूप में दो का ही उल्लेख है १. हरिभद्रसूरि और २. प्रस्तुत ग्रन्थकार नेमिचन्द्रसूरि । हरिभद्रसूरि प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के दिग्गज विद्वान् थे। इनके लिए उल्लेख प्राप्त होता है कि इन्होंने २४ तीर्थंकरों की चरित्रों की रचना की थी। उनमें से केवल ४ प्राप्त हैं—१. चन्द्रप्रभ चरित्र, २. मल्लिनाथ चरित्र, ३. अजितनाथ चरित्र ये तीनों प्राकृत भाषा में रचित हैं और ४. नेमिनाथ चरित्र अपभ्रंश भाषा में है। इसका रचना संवत् १२१६ है। यह नेमिनाथ चरित्र लालभाई दलपतभाई प्राच्य भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद से प्रकाशित हो चुका है।
ग्रन्थकार नेमिचन्द्रसूरि—ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थ में संक्षिप्त रचना प्रशस्ति दी है। प्रशस्ति में लिखा है कि जिनचन्द्रसूरि के शिष्य आम्रदेवसूरि हुए और उनके शिष्य नेमिचन्द्रसूरि ने इस ग्रन्थ की रचना की है। आम्रदेवसूरि शिष्य लिखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ये सैद्धान्तिक-शिरोमणि प्रथम नेमिचन्द्रसूरि नहीं है। अत: इसमें विचार की आवश्यकता ही नहीं है। भूमिका लेखक ने उनकी वंश-परम्परा में बृहद्गच्छीय देवसूरि के शिष्य का नाम आदित्यदेवसूरि लिखा है। जब कि सैद्धान्तिकशिरोमणि प्रथम नेमिचन्द्रसूरि ने आख्यानकमणिकोश की प्रशस्ति में देवसूरि के शिष्य अजितसूरि हुए ऐसा लिखा है,
और प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता ने अपने अनन्तनाह चरियम् की प्रशस्ति में अजितसूरि के स्थान पर अजितदेवसूरि लिखा है। प्रस्तुत ग्रन्थ रचनाकार के प्रौढ वैदुष्य को प्रकट करता है और सूचित करता है कि ये आगमिक ज्ञान में निमज्जन करने वाले परम गीतार्थ थे और सैद्धान्तिक शिरोमणि प्रथम नेमिचन्द्रसूरि की दिग्गज परम्परा के सम्पोषक विद्वान थे।
प्रस्तुत ग्रन्थकार की दूसरी कृति अनन्तनाह-जिणचरियम् के नाम से प्राप्त होती है। इसकी भाषा' प्राकृत है, रचना संवत् १२१६ है, धोलका नगर में निवास करते हुए महाराज कुमारपाल के राज्य में इसकी रचना हुई है। श्लोक परिमाण १२००० है । यह ग्रन्थ पण्डित रूपेन्द्रकुमार पगारिया द्वारा सम्पादित होकर लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद से सन् १९९८ में प्रकाशित हो चुका है।
सिद्धसेनसूरि-प्रवचनसारोद्धार के टीकाकार सिद्धसेनसूरि हैं। टीकाकार ने इस टीका का नाम 'तत्त्वबोध-विकाशिनी' रखा है। सिद्धसेनसूरि चन्द्रगच्छ की परम्परा के उद्भट विद्वान थे । इनकी गुरु-परम्परा बहुश्रुत परम्परा रही है, एक से एक बढ़कर दार्शनिक, सैद्धान्तिक दिग्गज विद्वान् हुए हैं। इनकी पूर्व गुरु-परम्परा के अभयदेवसूरि आदि दुर्धर्ष विद्वानों के कतिपय ग्रन्थ तो आज भी दार्शनिक जगत में सर्वोच्च स्थान रखते हैं। सिद्धसेनसूरि ने प्रशस्ति में स्वकीय गुरु-परम्परा दी है। इनकी अवान्तर परम्परा का इसमें उल्लेख नहीं है, होना भी नहीं चाहिए। किन्तु इनकी विस्तृत परम्परा के आचार्यों, साहित्यकारों का विद्वत् जगत ऋणी है। अत: इनकी कतिपय अवान्तर परम्पराओं का वंशवृक्ष एवं निर्मित साहित्य का उल्लेख शोधार्थियों के लिए. आवश्यक होने से इसके परिशिष्ट रूप में टिप्पणी के साथ दिया जा रहा है।
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