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________________ प्रवचन-सारोद्धार सम्पादकीय ग्रन्थ का नाम-ग्रन्थकार ने इसका नाम प्रवचनसारोद्धार दिया है। प्रवचन = जिनवाणी अर्थात् गणधर ग्रथित एवं पूर्वधर गीतार्थ आचार्यों द्वारा आगमोक्त वाणी, सार = निष्कर्ष, संक्षेप, रहस्य, उद्धार = संकलन, संग्रह, चयन कर एक स्थान पर एकत्रित करना—प्रवचनसारोद्धार का व्युत्पत्तिजनक अर्थ है। समस्त आगमों में वर्णित विषयों का एक स्थान पर संग्रह होने से यह नाम अन्वर्थक प्रतीत होता है। ग्रन्थकार का वैदुष्यजनित वैशिष्ट्य यह है कि 'तीर्थंकर के लंछन' जैसे सामान्य से सामान्य और 'कर्मप्रकृति, गुणस्थान, अल्पबहुत्व और षड्द्रव्य' जैसे गहन से गहन २७६ विषयों का आगमों से संकलन किया है। संकलन-ग्रन्थ होने पर भी इसमें लगभग ६०० गाथाएँ आगमों से ली गई हैं और शेष गाथाएँ स्वप्रणीत भी हैं। , गुरु-परंपरा-ग्रन्थकार बृहद्गच्छीय देवसूरि परम्परा में हुए हैं। बृहद्गच्छीय परम्परा वट वृक्ष की तरह अत्यन्त विशाल और समृद्ध रही है। यहाँ इस ग्रन्थ से सम्बन्धित देवसूरि परम्परा का ही उल्लेख अभीष्ट है। देवसूरि के अजितसूरि, अजितसूरि के आनन्दसूरि पट्टधर हुए। आनन्दसूरि के दो शिष्य थे-१. नेमिचन्द्रसूरि प्रथम और २. जिनचन्द्रसूरि । प्रथम नेमिचन्द्रसूरि प्राकृत भाषा और आगम साहित्य के उद्भट विद्वान् थे। आचार्य पदाभिषेक के पूर्व इनका नाम देवेन्द्रगणि था। आचार्य बनने पर नेमिचन्द्रसूरि नाम हुआ। परवर्ती ग्रन्थकारों ने इन्हें 'सैद्धान्तिक-शिरोमणि' विशेषण से सम्बोधित किया है। इनकी प्राकृत भाषा में पाँच रचनाएँ प्राप्त होती हैं१. उत्तराध्ययन सूत्र सुखबोधिका टीका, रचना संवत् ११२९, श्लोक परिमाण १४०००, इसमें स्वयं के लिए देवेन्द्रगणि शब्द का उल्लेख है। २. आख्यानकमणिकोश, मूल गाथा ५२, कर्ता के रूप में स्वयं का नाम देवेन्द्रगणि लिखा ३. रत्नचूड कथा, श्लोक परिमाण ३०८१, इसमें स्वयं को नेमिचन्द्रसूरि के नाम से सम्बोधित किया है, अत: यह रचना ११२९ के बाद की ही है । लघु वीरचरित्र, इसे महावीर चरित्र भी कहते हैं, रचना संवत् ११४१, श्लोक परिमाण ३००० । इसकी संवत् ११६१ की लिखित ताड़पत्रीय प्रति जैसलमेर ज्ञान भण्डार में उपलब्ध है। ५. आत्मबोध कुलक, इसका दूसरा नाम धर्मोपदेश कुलक भी प्राप्त होता है, गाथा संख्या प्रथम नेमिचन्द्रसूरि के गुरु भ्राता जिनचन्द्रसूरि के शिष्य आम्रदेवसूरि हुए। इन्होंने प्रथम नेमिचन्द्रसूरि रचित आख्यानकमणिकोश पर संवत् ११९० धवलकपुर में सिद्धराज जयसिंह के राज्य में १४००० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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