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द्वार २
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वन्दन में प्रथम बार अहो कायं कायसंफासं ३ आवर्त्त ।
भे
वन्दन में प्रथम बार....जत्ता भे....जवणि.... जं च ..... ३ आवर्त । इस प्रकार दूसरी बार के वन्दन में भी ६ आवर्त्त होते हैं। कुल ६+६ = १२ आवर्त्त हुए।
'अहोकाय....' आदि शब्द बोलने की विशिष्ट रीति है। जैसेअ- आसन पर रखे हुए चरवले, मुहपत्ति अथवा रजोहरण पर कल्पित गुरुचरणों को, दोनों हाथों
की दसों अङ्गलिओं से स्पर्श करते हए बोला जाता है। हो- दसों अङ्गलिओं से ललाट को स्पर्श करते हुए बोला जाता है। का- चरवले आदि को स्पर्श करते हुए बोला जाता है। यं- ललाट को स्पर्श करते हुए बोला जाता है। का- चरवले आदि को स्पर्श करते हुए बोला जाता है। य- ललाट को स्पर्श करते हुए बोला जाता है। ज- गुरुचरणों की स्थापना को स्पर्श करते हुए अनुदात्त स्वर से बोला जाता है। त्ता- .चरणों की स्थापना से उठाये हुए दोनों हाथों को चरवले, रजोहरण और ललाट के बीच में
सीधे चौड़े करते हुए स्वरित स्वर से बोला जाता है।
दृष्टि गुरु के समक्ष रखकर दोनों हाथ ललाट पर लगाते हुए उदात्तस्वर में बोला जाता है। ज- चरण स्थापना को स्पर्श करते हुए अनुदात्त स्वर से बोला जाता है।
मध्य में हाथों को सीधे चौड़े करते हुए स्वरित स्वर में बोला जाता है। णि- ललाट को स्पर्श करते हुए उदात्त स्वर में बोला जाता है। ज्ज- चरणस्थापना को स्पर्श करते हुए अनुदात्त स्वर में बोला जाता है। च- मध्य में हाथों को सीधे चौड़े करके स्वरित स्वर में बोला जाता है।
ललाट को स्पर्श करते हुए उदात्त स्वर में बोला जाता है। • सिरनमन-सिर झुकाना वन्दन देते समय । वन्दन के बीच चार बार सिर-नमन होता हैं। दो
शिष्य के तथा दो गुरु के होते हैं। • खामेमि खमासमणो...देवसियं वइक्कम.शिष्य का... • अहमवि खामेमि तुम... गुरु का....२. इस प्रकार दुबारा वन्दन करते समय शिष्य का व गुरु का १....१ नमन । • अन्यमत में-'कायसंफासं' पद बोलकर, हाथ मुहपत्ति पर स्थापन कर उस पर मस्तक लगाना
यह एक 'सिरनमन'। इसी प्रकार दूसरी बार की वन्दना में दूसरा 'सिरनमन' । 'खामेमि खमासमणो' बोलते हुए मस्तक लगाना तीसरा 'सिरनमन' व पुन: वन्दन देते समय वही पद बोलते हुए चौथा 'सिरनमन'। इस मतानुसार चारों ‘सिरनमन' शिष्य के ही हैं। वर्तमान में
भी यही व्यवहार प्रचलित है। • त्रिगुप्त-मन-वचन और काया की गुप्तिपूर्वक वन्दन त्रिगुप्त वन्दन है।
भे
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