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________________ प्रवचन-सारोद्धार हाथ की = ६ प्रमार्जना, दो पाँव की = ६ प्रमार्जना व मुख की ३ प्रमार्जना, कुल पन्द्रह होती हैं। टीका में 'गोप्यावयवविलोकनरक्षणाय' पाठ है। इसमें विलोकन शब्द इस बात का द्योतक है कि कक्षा, हृदय आदि गोप्य अवयव स्वयं व्यक्ति को भी नहीं देखना चाहिये, क्योंकि इन्हें देखना रागवर्धक है। यदि दूसरों को दिखाने का ही निषेध होता तो 'विलोकनाय' के स्थान पर 'प्रदर्शनाय' ऐसा ही प्रयोग करते। अत: स्त्री को अपने गोप्य-अवयवों को सदा आवृत ही रखना चाहिये ॥ ९७ ॥१ ३. आवश्यक आवश्यक के २५ स्थान हैं। इनका वर्णन स्वयं ग्रन्थकार ने दिया है। अवश्य करने योग्य क्रिया आवश्यक कहलाती है। वे इस प्रकार हैं• अवनमन–सिर झुकाकर नमन करना अवनमन है। गुरुवन्दन में दो अवनमन हैं। (i) 'इच्छामि खमासमणो....अणुजाणह' इन पदों के द्वारा गुरु के अवग्रह में प्रवेश करने हेतु आज्ञा माँगते हुए सिर झुकाना प्रथम 'अवनमन' है। (ii) दूसरी बार के वन्दन में पुन: इन्हीं पदों के उच्चारणपूर्वक सिर झुकाना। • यथाजात-जिस आकार में जन्म लिया था, उस आकार से यक्त होकर वन्दन करना 'यथाजात' आवश्यक है। जन्म दो प्रकार का है। (i) भवजन्म-माता के गर्भ से बाहर आना। (ii) दीक्षाजन्म–संसारमायारूपी स्त्री की कुक्षि से बाहर आना। यहाँ दोनों ही जन्म का प्रयोजन है। दीक्षा लेते समय मुनि के चोलपट्टा, रजोहरण व मुहपत्ति ये तीन उपकरण ही होते हैं वैसे द्वादशावर्त वन्दन करते समय भी मुनि तीन ही उपकरण रखे। ‘भवजन्म' के समय बच्चे के दोनों हाथ ललाट पर लगे हुए होते हैं, वैसे ही वन्दन करते समय शिष्य भी दोनों हाथ ललाट पर लगाते हुए विनम्र मुद्रा से गुरुवन्दन करे । भवजन्म और दीक्षाजन्म दोनों प्रकार के जन्म के आकार से युक्त होकर वन्दन करना 'यथाजात' वन्दन कहलाता है। • आवर्त-सूत्रोच्चारणपूर्वक विशेष प्रकार की शारीरिक क्रिया। सूत्र बोलते हुए, मुहपत्ति या चरवले पर कल्पित गुरु के चरण कमल को स्पर्श कर, हाथों को मस्तक पर लगाना आवर्त कहलाता है। यद्यपि इस ग्रन्थ में साध्वीजी की देह पडिलेहण अलग से नहीं बताई तथापि ज्ञानविमलसूरिकृत भाष्य के बालावबोध में साध्वीजी की १८ पडिलेहण बताई हैं। १५ स्त्री की तरह तथा प्रतिक्रमण करते समय साध्वीजी का सिर खुल्ला रखने का व्यवहार होने से ३ पडिलेहण अधिक होती है। अत: साध्वीजी के १५ + ३ = १८ पडिलेहण होती हैं। यद्यपि इस ग्रन्थ में पाँवों की प्रमार्जना मुहपत्ति द्वारा करने का कहा है तथापि वर्तमान में ऐसा व्यवहार नहीं है। वर्तमान में तो ओघे या चरवले से ही पाँवों की पडिलेहण की जाती है। उपयुक्त भी यही लगता है। मुंह पर रखने योग्य मुहपत्ति को पाँवों पर लगाना योग्य नहीं लगता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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