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________________ ५२ द्वार २ • अक्खोडा-आकर्षण करना, खींचकर लाना। यहाँ अक्खोडा का यही अर्थ ठीक बैठता है। क्योंकि सुदेव, सुगुरु, सुधर्म, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति व कायगुप्ति को ग्रहण करना है। आत्मा में लाना है। अक्खोडा के द्वारा हम यही भाव प्रकट करते हैं। वधूटक (दायें हाथ पर) करने के पश्चात् दोनों जंघाओं के बीच रहे हुए बायें हाथ पर हथेली का स्पर्श न करते हुए, जैसे किसी को अन्दर ले जा रहे हों-इस प्रकार मुहपत्ति से, कलाई से लेकर कहनी तक हाथ की तीन बार प्रमार्जना करें। प्रत्येक प्रमार्जन में ३-३ अक्खोडा होने से ३ x ३ = ९ अक्खोडा हैं। पक्खोडा-प्रस्फोटक = झाड़ना, गिराना इसमें लगी हुई वस्तु को झाड़ने....गिराने का भाव है। वधटक की हई महपत्ति वाले दायें हाथ से बायें हाथ पर ऊपर से नीचे की ओर महपत्ति द्वारा स्पर्श करते हुए इस प्रकार प्रमार्जन करना जैसे किसी लगी हुई वस्तु को झाड़ रहे हों। यहाँ भी प्रत्येक प्रमार्जना में ३-३ पक्खोडा होने से ३ x ३ = ९ पक्खोडा हैं। • ये अक्खोडा-पक्खोडा क्रमश: एक-दूसरे के अन्तराल में होते हैं। जैसे--- पहले ३ अक्खोडा फिर ३ पक्खोडा, फिर अक्खोडा....पक्खोडा इस प्रकार दोनों तीन-तीन बार किये जाते हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर मुहपत्ति पडिलेहण के - १ दृष्टिपडिलेहण + ६ पुरिम + ९ ' अक्खोडा + ९ पक्खोडा = २५ स्थान हुए ॥ ९६ ॥ २. देह (शरीर) -शरीर से सम्बन्धित पडिलेहण के २५ प्रकार हैं। यद्यपि ये भी मूल में नहीं हैं तथापि टीका में बताये गये हैं। • दायें हाथ के वधूटक द्वारा सर्वप्रथम बायें हाथ के मध्य में, दायीं तरफ व बायीं तरफ क्रमश: प्रमार्जना करना.... १ त्रिक। • फिर बायें हाथ के वधूटके द्वारा दायें हाथ की पूर्ववत् प्रमार्जना करना....२ त्रिक । • तत्पश्चात् 'वधूटक' खोलकर मुहपत्ति के दोनों किनारों को दोनों हाथ से पकड़कर मस्तक के मध्य, बायें और दायें अनुक्रम से प्रमार्जना करना.... ३ त्रिक । • इसी क्रम से (सिर की तरह) मुख व हृदय की प्रमार्जना करना....४-५वाँ त्रिक। • मुहपत्ति को समेटकर दायें हाथ में लेकर दायें खम्भे से पीठ के ऊपर के दायें भाग का प्रमार्जन करना। इसी तरह बायीं ओर करना....२ प्रमार्जन । • बायें हाथ में ग्रहण की हुई मुहपत्ति द्वारा दायीं कक्षा (काँख) से पीठ के नीचे के भाग की प्रमार्जना करना। इसी तरह दायें हाथ में मुहपत्ति लेकर बायीं ओर करना... २ प्रमार्जन। • तत्पश्चात् दायें हाथ में वधूटक की हुई मुहपत्ति के द्वारा दायें-बायें पाँवों के मध्य, दायें व बायें भाग की क्रमश: प्रमार्जना करना....३ त्रिकद्र्य। • इस प्रकार सात त्रिक + एक चतुष्क = २५ पडिलेहण । ये पुरुष के होती हैं। स्त्रियों के गोप्य अवयव आवृत होने से दो हाथ, दो पाँव और मुख की ही प्रमार्जना उपयुक्त है। दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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