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________________ प्रवचन-सारोद्धार ५१ मानकर करना कर दोष है। दीक्षा लेने से हम लौकिक कर से तो मुक्त हो गये पर अरिहंत परमात्मा के वन्दन रूप कर से अभी मुक्त नहीं हो पाये, ऐसा मानकर वन्दन करना मोचन दोष है ॥ १७० ।। रजोहरण और ललाट को आवर्त करते समय स्पर्श करना या न करना-इसके ४ भङ्ग होते हैं। इसमें ३ भांगों में आश्लिष्ट-अनाश्लिष्ट दोष लगता है। वन्दन करते समय अतिशीघ्रता में अक्षर-वाक्य, आवश्यक आदि न्यून बोलना या करना न्यूनदोष युक्त वन्दन है ।। १७१ ।। वन्दन पूर्ण करने के बाद ऊँचे स्वर से 'मत्थाएण वंदामि' बोलना उत्तरचूड दोष है। गूंगे की तरह सूत्रों का मन्-मन् उच्चारण करते हुए वन्दन करना मकदोष युक्त वंदन है ।। १७२ ।। अत्यधिक उच्च स्वर में सूत्र बोलते हुए वन्दन करना ढकुर दोष है। जलती हुई लकड़ी की तरह रजोहरण को घुमाते हुए वन्दन करना चूडलिक दोष है ॥ १७३ ।। वन्दन के कारण वन्दन के ८ कारण हैं-१. प्रतिक्रमण, २. स्वाध्याय, ३. काउस्सग्ग, ४. अपराध की क्षमायाचना, ५. प्राघूर्णक (मेहमान) बड़े मुनियों का आगमन ६. आलोचना ७. पूर्वकृत पच्चक्खाण के आगारों का संक्षेप, ८. अनशन, संलेखना आदि।। १७४ ।। ___-विवेचनउपद्वार१. मुहपत्ति, ५. प्रतिषेध, १३. आशातना, '२. देह, ६. गुरुवचन, १०. अवग्रह, १४. दोष, ३. आवश्यक, ७. अधिकारी, ११. अभिधान, १५. कारण। ४. स्थान, ८. अनधिकारी, १२. उदाहरण, १. मुहपत्ति-इसे मुखानन्तक भी कहते हैं। मुखस्य = मुख का, अनन्तक = वस्त्र अर्थात् मुहपत्ति । इससे सम्बन्धित २५ स्थान हैं। यद्यपि ये स्थान प्रसिद्ध होने से मूल में नहीं बताये हैं तथापि शिष्यों के अनुग्रहार्थ टीकाकार महर्षि बता रहे हैं। • वन्दन करने का इच्छुक भव्यात्मा गुरु को खमासमण देकर अनुमतिपूर्वक उत्कटिक आसन से बैठकर मुहपत्ति खोले व देखे....१ दृष्टिपडिलेहण । • मुहपत्ति को पलटकर देखे तथा बायें हाथ तरफ के भाग को इस प्रकार उपयोग-पूर्वक झाड़े, जैसे किसी लगी हुई वस्तु को गिरा रहे हों। पुन: दूसरी ओर पलटकर भी इसी प्रकार करें। ये पूर्वक्रिया रूप ‘पुरिम' कहलाते हैं। दोनों ओर तीन-तीन बार होते हैं...६ पुरिम। पुरिम करने के बाद 'मुहपत्ति' को बायें हाथ पर डालकर दायें हाथ से बीच से इस प्रकार खींचे कि 'मुहपत्ति' के दो पट हो जायें। तत्पश्चात् दायें हाथ की अङ्गलियों के बीच दो या तीन 'वधूटक' करें । वधूटक-बहू जैसे धूंघट निकालती है वैसा ही अङ्गलियों के अन्तराल में मुहपत्ति का झूलता हुआ आकार बनाना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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