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द्वार २
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स्व या पर के निमित्त से उत्पन्न मन-प्रद्वेष से युक्त वन्दन मन-प्रद्वेष दोषयुक्त वन्दन है। दोनों घुटनों पर हाथ रखकर अथवा नीचे हाथ रखकर अथवा दोनों पसलियों पर हाथ रखकर अथवा गोद में हाथ रखकर अथवा बायां या दायां घुटना दोनों हाथ के मध्य रखकर वन्दन करना, वेदिका पञ्चक दोष युक्त वंदन है। वन्दन नहीं करूँगा तो गुरु गच्छ से निकाल देंगे, इत्यादि भय से वन्दन करना, भय दोष है ।। १६०-१६१ ।।
'आचार्य मेरी पूछताछ करते हैं, भविष्य में भी करेंगे' इस लोभ से 'हे आचार्य भगवन् ! हम आपको वन्दन करते हैं,' इस प्रकार एहसान लादते हुए वन्दन करना भजमान वन्दन है।
इसी प्रकार मैत्री वन्दन है। यथा-वन्दन करूँगा तो आचार्य मेरे मित्र बन जायेंगे-इस भाव से वन्दन करना। वन्दन करने से सभी लोग मुझे सुशिक्षित और विनीत समझेंगे, मन में ऐसा भाव रखकर वन्दन करना गौरव वन्दन है॥ १६२ ।।
__रत्नत्रय की प्राप्ति के सिवाय लौकिक कारण-ऐहिक वस्तुओं को पाने की इच्छा से वन्दन करना, कारणदोष युक्त वन्दन है। अथवा सत्कार-सम्मान, प्रशंसा आदि पाने की इच्छा से ज्ञान ग्रहण करने के लिये गुरु को वन्दन करना कारणदोष युक्त वन्दन कहलाता है। १६३ ।।
अपनी अपभ्राजना के भय से दूसरों की दृष्टि से बचते हुए चोर की तरह छुपकर वन्दन करना , स्तैन्य वन्दन है।। १६४॥
___ गौचरी के समय, लघुनीति-बड़ी नीति के लिये जाते समय वन्दन करना, प्रत्यनीक वन्दन है। क्रोधावेश में वन्दन करना रुष्ट-दोष-युक्त वन्दन है।। १६५ ।।
काष्ठ प्रतिमा की तरह न तो आप अवंदक पर रुष्ट होते हो और न वन्दन करने वाले पर तुष्ट होते हो-इस प्रकार तिरस्कारपूर्वक गुरु को वन्दन करना तर्जित दोष युक्त वन्दन है। अथवा वन्दन करते हुए सिर, अङ्गली, भृकुटी आदि से गुरु की तर्जना करना भी तर्जित वन्दन कहलाता है।। १६६॥
वन्दन विश्वास का स्थान है। इसे यथावत् करने से मैं श्रावकों का विश्वासपात्र बनूँगा। इस प्रकार सद्भाव से रहित होकर वन्दन करना शठ वन्दन है। कपट, कैतव और शठता सभी एकार्थक हैं।। १६७ ॥
___ हे गणि!, हे वाचक!, हे ज्येष्ठार्य! आपको वन्दन करने से क्या लाभ है? इस प्रकार हीलना करते हुए गुरु को वन्दन करना, हीलित वन्दन है। वन्दन करते-करते बीच में ही विकथा करना विपरिकुंचित वन्दन है ।। १६८ ।।
भीड़ में या अन्धकार में चुपचाप बैठे या खड़े रहना पर वन्दन नहीं करना, कोई देखे तो वन्दन करना, यह दृष्टादृष्ट दोष है। द्वादशावर्त वन्दन करते समय 'अहो काय काय' इत्यादि आवर्त करते हुए हाथ ललाट के मध्य में न लगाकर ललाट की दाईं-बाईं ओर लगाना शृंग दोषयुक्त वन्दन है ।। १६९ ।।
जैसे राजा का कर देय होता है वैसे वन्दन को भी अरिहंत परमात्मा का अवश्य देय कर
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