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प्रवचन-सारोद्धार
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गुरु के प्रवचन के बीच सभा को सम्बोधित करके शिष्य कहे-'यह बात मैं तुम्हें अच्छी तरह समझाऊँगा'-ऐसा कहकर गुरु की प्रवचनसभा भङ्ग करे ।। १४६ ।।
गुरु के प्रवचन के बीच में ऐसा कुछ कहना जैसे, गोचरी का समय हो गया है अथवा सूत्रपोरसी का समय है इत्यादि। जिससे कि प्रवचन-सभा भङ्ग हो जाय। गुरु का व्याख्यान पूर्ण हो जाने के पश्चात् अपनी विद्वत्ता दिखाने के लिये सभा के सम्मुख गुरु द्वारा प्रतिपादित विषय को पुन: विवेचित करना आशातना है ।। १४७ ।।
गरु के आसन, संथारादि को पाँव लगाना। पाँव लगाकर अपराध की क्षमायाचना न करना । है॥ १४८॥
गुरु के शय्या-संथारा आदि पर बैठना, खड़े रहना अथवा सोना आशातना है। गुरु के समक्ष ऊँचे आसन पर बैठना, खड़े रहना या सोना तथा गुरु के समान आसन पर बैठना. खड़े रहना अथवा सोना आशातना है ।। १४९ ॥ वन्दन के दोष। अनादृत, स्तब्ध, प्रविद्ध परिपिंडित, टोलगति, अङ्कश, कच्छपरिंगित, मत्स्योवृत्त, मनसाप्रदुष्ट,
वेदिकाबद्ध, भय, भजंत, मैत्री, गौरव, कारण, स्तन्य, प्रत्यनीक, रुष्ट, तर्जन, शठ, हीलना, विपरिकुंचित, दृष्टादृष्ट, शृंग, कर, मोचन, आश्लिष्ट-अनाश्लिष्ट, न्यून, उत्तरचूलिक, मूक, ढकुर एवं चूडलिक इन ३२ दोषों से रहित शुद्ध वन्दन करना चाहिये ।। १५०-१५४ ।।
आदरपूर्वक वन्दन करना आदृत वन्दन है। ‘आदृत' शब्द का आर्ष प्रयोग आढ़ा है। इससे विपरीत वन्दन अनादृत है। अनादरपूर्वक वन्दन करना दोष है। 'मद' पूर्वक वन्दन करना स्तब्ध दोष है। द्रव्य (शरीर) और भाव (मानसिक अध्यवसाय) के भेद से स्तब्ध के दो भेद हैं। अर्थात् द्रव्य स्तब्ध और भाव स्तब्ध की चतुर्भंगी कही गई है। १५५ ।।
प्रविद्ध अर्थात् उपचार रहित वन्दन करना। वन्दन विधि में जो उपचार-विनय आवश्यक है, उसका पालन नहीं करना। वन्दन करते समय व्यवस्थित न होने से वन्दन विधि पूर्ण किये बिना बीच में छोड़कर चले जाना। जैसे सामान ढोने वाला कुली शर्त के अनुसार नियत स्थान पर माल छोड़कर चला जाता है।। १५६ ।।
एक ही वन्दन से आचार्य आदि अनेक को वन्दन करना। अथवा पद, सम्पदा आदि का ध्यान रखे बिना सूत्रों का उच्चारण करना। अथवा दोनों हाथ जंघा पर रखकर वन्दन करना परिपिंडित दोष है। टिड्डी की तरह आगे-पीछे डोलते हुए वन्दन करना टोलगति दोष है।। १५७॥
गुरु का हाथ या उपकरण आदि पकड़कर बिठाना फिर वन्दन करना अङ्कश वन्दन है। कछुवे की तरह रेंगते हुए वन्दन करना कच्छपरिंगित वन्दन है ॥ १५८ ॥
वन्दन करते समय उठते और बैठते वक्त पानी में मछली की तरह ऊँचा-नीचा होना अथवा एक आचार्य आदि को वन्दन करके समीपवर्ती दूसरे को वन्दन करने के लिये मछली की तरह पलट जाना मत्स्योवृत्त वन्दन है।। १५९ ।।
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