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प्रवचन-सारोद्धार
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सुख की लालसा से आगम-निरपेक्ष मति-कल्पित आलंबनों को माध्यम बनाकर सतत विकृति का सेवन करने वाला तथा तीनों गारव में आसक्त यथाच्छंद कहलाता है ।। १२३ ।।
वन्दन के लिये ५ निषेधावस्था—१. गुरु व्याख्यानादि कार्य में व्यग्र हों, २. पराड्.मुख बैठे हों, ३. निद्रा आदि प्रमाद दशा में हों, ४-५. आहार व नीहार कर रहे हों या करने को तत्पर हों। १२४ ॥
वन्दन के लिये योग्य अवस्था-गुरु प्रशांत हों, आसन पर बैठे हों, अप्रमत्त हों, वन्दन करने वालों को 'छंदेण' इत्यादि वचन बोलने में तत्पर हों, ऐसे समय में गुरु की अनुमतिपूर्वक बुद्धिमान आत्मा वन्दन करे ॥ १२५ ।।
गुरु का अवग्रह-चारों दिशा में गुरु का अवग्रह आत्म-प्रमाण अर्थात् साढ़े तीन हाथ परिमाण होता है। गुरु के अवग्रह में उनकी अनुज्ञा के बिना प्रवेश करना नहीं कल्पता है ॥ १२६ ।।
वन्दन के नाम–१. वन्दनकर्म, २. चितिकर्म, ३. कृतिकर्म, ४. पूजाकर्म और ५. विनयकर्म-ये पाँच वन्दन के नाम हैं। १२७ ॥
वन्दन के ५ उदाहरण द्रव्यवन्दन और भाववन्दन को बताने वाले–१. शीतलाचार्य, २. क्षुल्लकाचार्य, ३. कृष्ण महाराज, ४. सेवक और ५. पालक के उदाहरण हैं ।। १२८ ॥
गुरु सम्बन्धी ३३ आशातना--(१-९) -आगे, पीछे दांये-बांये गुरु के समीप में चलना, खड़े रहना तथा बैठना, (१०) . प्रथम आचमन, (११) . प्रथम आलोचना, (१२) अश्रवण, (१३) गुरु से पहले बोलना, (१४) गुरु को छोड़कर सर्वप्रथम अन्य के पास गौचरी की आलोचना करना, (१५) सर्वप्रथम दूसरों को गौचरी दिखाना, (१६) गुरु से पहिले दूसरों को आमंत्रण देना, (१७) भिक्षा लाकर गुरु की अनुमति बिना ही दूसरों को अधिक आहार देना, (१८) स्वयं अधिक आहार वापरना, (१९-२०) गुरु के बुलाने पर भी जवाब न देना, (२१) आसन पर बैठे-बैठे ही जवाब देना, (२२) क्या कहते हो? इस प्रकार जवाब देना, (२३) गुरु के साथ तुच्छ शब्द 'तू' से बात करना, (२४) गुरु के सामने बोलना, (२५) गुरु के प्रवचन से क्रुद्ध होना, (२६) 'आपको यह बात याद नहीं है' गुरु को ऐसा कहना, (२७) गुरु के प्रवचन को बन्द करके श्रोताओं को कहना कि यह बात मैं तुम्हें अच्छी तरह से समझाऊँगा, (२८) प्रवचन-सभा भङ्ग करना, (२९) गुरु द्वारा प्रवचन समाप्त कर देने पर अपनी विद्वत्ता बताने हेतु पुन: प्रवचन प्रारम्भ करना, (३०) गुरु के आसन, संथारा आदि को पाँव लगाना, (३१) गुरु के संथारे पर बैठना, (३२) गुरु से ऊपर बैठना, (३३) गुरु के बराबर बैठना ॥ १२९-१३१ ।।
गुरु के आगे-पीछे और दांई-बाई तरफ समीप में चलना, खड़े रहना व बैठना- ये ९ आशातनायें विनय का भङ्ग करने वाली हैं। आचार्य आदि के साथ स्थंडिलभूमि जाने वाला शिष्य उपाश्रय में आकर गुरु से पहले पाँव इत्यादि धोये तो आशातना लगती है।। १३२-१३३ ।।
बाहर से आने के बाद शिष्य गुरु से पहले गमनागमन की आलोचना 'इरियावहिया' करे और
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