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________________ द्वार २ ४६ कुशील कुशील के तीन भेद हैं-ज्ञानकुशील, दर्शनकुशील और चारित्रकशील। वीतराग परमात्मा ने इन तीनों को अवन्दनीय कहा है। ज्ञानाचार, दर्शनाचार एवं चारित्राचार की विराधना करने वाले क्रमश: ज्ञानकुशील, दर्शनकुशील एवं चारित्रकुशील हैं। चारित्रकुशील निम्न प्रकार का है। १०९-११० ।। ___कौतुककर्म, भूतिकर्म, प्रश्नाप्रश्न, निमित्त, आजीविका, कल्क-कुरुका, लक्षण, विद्या, मंत्र आदि के द्वारा जीवन जीने वाला चारित्रकुशील है।। १११ ।। __ कौतुककर्म और भूतिकर्म-सौभाग्य (पुत्रादि की प्राप्ति) आदि की प्राप्ति के लिये स्नान आदि कराना कौतुककर्म है। ज्वर आदि रोग से पीड़ित व्यक्ति को भूति अर्थात् भस्म आदि देना भूतिकर्म है॥ ११२॥ प्रश्नाप्रश्न--स्वप्न में जापकृत विद्या द्वारा–कर्णपिशाचिनी आदि विद्या द्वारा अथवा अभिमंत्रित घंटिका आदि के द्वारा किसी से पृष्ट तथा अपृष्ट प्रश्नों का जवाब देना प्रश्नाप्रश्न है।। ११३ ॥ निमित्त-जीवी-भूत-भावी और वर्तमानकालीन शुभाशुभ भावों का कथन करना निमित्तजीवीपन है। जाति, कुल, शिल्प, कर्म, तप, गण तथा सूत्र के माध्यम से आजीविका उपार्जित करने वाला आजीवक कहलाता है।। ११४ ।। कल्ककुरुकाजीवी-कल्ककुरुका अर्थात् माया-कपट। कपट करके दूसरों को ठगना। स्त्री-पुरुषादि के लक्षण बताना। विद्या-मंत्र आदि का कथन करना। विद्या और मंत्र का स्वरूप प्रसिद्ध है।। ११५ ।। संसक्त का स्वरूप-जिसमें गुण-दोषों का मिश्रण हो वह संसक्त कहलाता है। पार्श्वस्थादि की तरह वह भी अवन्दनीय है। जैसे गाय के खाने के पात्र में खल-कपास इत्यादि झूठे और बिना झूठे दोनों ही एक साथ मिले हुए रहते हैं वैसे मूल-उत्तर गुण सम्बन्धी दोष तथा अन्य कई दोष होने से साधु संसक्त कहलाता है। ११६-११७ ।। संसक्त के दो भेद-वीतराग परमात्मा ने संक्लिष्ट और असंक्लिष्ट के भेद से संसक्त दो प्रकार का बताया है। प्राणातिपातादि पाँच आस्रवों में प्रवृत्त, ऋद्धिगारव, रसगारव और सातागारव में आसक्त, स्त्रीभोगी तथा गृहस्थ सम्बन्धी कार्यों में रत क्रमश: स्त्री-संक्लिष्ट तथा गृहि-संक्लिष्ट है ।। ११८-११९ ॥ ___पार्श्वस्थादि के साथ रहे तब उनके जैसा अप्रियधर्मी बन जाय तथा संविज्ञ के साथ रहे तब उनके जैसा प्रियधर्मी बन जाय वह असंक्लिष्ट संसक्त है ।। १२० ।। ___ यथाच्छंद का स्वरूप-उत्सूत्र (सूत्रविरुद्ध) आचरण व प्ररूपणा करने वाला यथाच्छंद कहलाता है। ऐसा आत्मा इच्छानुसार बोलता है तथा आचरण करता है ।। १२१ ।। जिनेश्वर परमात्मा के द्वारा अनुपदिष्ट, मतिकल्पित एवं आगम से अननुमत जो है वह सब उत्सूत्र है। गृहस्थ के कार्यों में प्रवृत्त दूसरों के अल्प अपराध में भी सतत क्रुद्ध रहने वाला यथाच्छंद है।। १२२ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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