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________________ प्रवचन-सारोद्धार : :: :: : :: :: ::: : M usicati o 2025220000UDICIC00320030501 पाँच दृष्टान्त । गुरु की तेतीस आशातना, वन्दन के बत्तीस दोष, वन्दन के आठ कारण। इस प्रकार वन्दन के १९२ स्थान होते हैं। ९३-९५ ।। मुहपत्ति के २५ स्थान—एक दृष्टि पडिलेहणा, नौ अक्खोडा, नौ पक्खोडा, छ: प्रस्फोटक कुल मिलाकर मुहपत्ति के २५ बोल होते हैं ॥१६॥ शरीर की २५ पडिलेहणा-दो हाथ, सिर, मुँह, हृदय, दो पाँव इन अङ्गों पर तीन-तीन प्रमार्जना तथा पीठ पर चार पडिलेहणा-इस प्रकार कुल मिलाकर शरीर की २५ पडिलेहणा होती हैं ।। ९७ ॥ २५ आवश्यक-दो अवनत, एक यथाजात, १२ आवर्त्त, ४ शिरनमन, ३ गुप्ति, २ प्रवेश और १ निष्क्रमण-इस प्रकार वन्दन के २५ आवश्यक हैं ।। ९८ ॥ वन्दन के छः स्थान-१. इच्छा, २. अनुज्ञा, ३. अव्याबाध, ४. यात्रा, ५. यापना और ६. अपराध की क्षमापना ये छ: वन्दन के स्थान हैं ॥ ९९ ।। वन्दन के छ: गुण-१. विनयोपचार, २. मानभञ्जन, ३. गुरुजनों की पूजा, ४. तीर्थंकर की आज्ञा का पालन, ५. श्रुतधर्म की आराधना तथा ६. अक्रियत्व/सिद्भत्व ये वन्दन के छ. गुण हैं। १००॥ गुरु के छ: वचन–१. छंदेण, २. अणुजाणामि, ३. तहत्ति, ४. तुब्भंपि वट्टए, ५. एवं अहमवि खामेमि, ६. तुम इत्यादि गुरु के शिष्य के प्रति छ: वचन हैं॥ १०१॥ वन्दन के अधिकारी पाँच–कर्म की निर्जरा के लिये १. आचार्य, २. उपाध्याय, ३. प्रवर्तक, ४. स्थविर तथा ५. रत्नाधिक को वन्दन करना चाहिये ॥ १०२ ॥ वन्दन के अनधिकारी पाँच–१. पार्श्वस्थ, २. अवसन्न, ३. कुशील, ४. संसक्त और ५. यथाच्छंद-ये पाँच जिनशासन में अवन्दनीय हैं। पार्श्वस्थ के दो भेद हैं-सर्व पार्श्वस्थ और देश पार्श्वस्थ। ___ सर्वपार्श्वस्थ—जो आत्मा ज्ञान-दर्शन तथा चारित्र से रहित केवल वेषधारी है वह सर्व पार्श्वस्थ देशपार्श्वस्थ—जो निष्कारण शय्यातरपिंड अभ्याहतपिंड राजपिंड नित्यपिंड तथा अग्रपिंड का उपभोग करता है वह देशपार्श्वस्थ है॥ १०३-१०५ ।। अवसन्न अवसन्न दो प्रकार के हैं-सर्व अवसन्न और देश अवसन्न। सर्व अवसन्न-अवबद्ध पीठ फलक वाला एवं स्थापनाभोजी सर्व अवसन्न है। देश अवसन्न-आवश्यक, स्वाध्याय, पडिलेहण, भिक्षा, ध्यान, भोजन-मांडली, उपाश्रय में प्रवेश या वहाँ से निर्गमन, कायोत्सर्ग, खड़े होना, बैठना, सोना आदि क्रिया में अविधि होने पर . 'मिच्छा मि दुक्कडं' न करना, आवश्यक आदि क्रियायें न करना अथवा न्यूनाधिक करना गुरु के सामने बोलना आदि दोषों से युक्त देश अवसन्न है। १०६-१०८ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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