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संगहगाहाए जो न खद्धसो निरूवीओ वीसुं । तं खद्धाइयणपए खद्धत्ति विभज्ज जोएज्जा ॥ १३८ ॥ एवं खद्वाइयणे खद्धं बहुयंति अयणमसणंति । आईसद्दा डायं होइ पुणो पत्तसागंतं ॥ १३९ ॥ वन्नाइजुयं उसढं रसियं पुण दाडिमंबगाईयं । मणईट्ठे तु मणुन्नं मन्नइ मणसा मणामं तं ॥ १४० ॥ निद्धं नेहवगाढं रुक्खं पुण नेहवज्जियं जाण । एवं अप्पडिसुणणे नवरिमिणं दिवसविसयंमि ॥ १४१ ॥ खद्धंति बहु भणंते खरकक्कसगुरुसरेण रायणियं । आसायणा उ सेहे तत्थ गए होइमा चऽण्णा ॥ १४२ ॥ सेहो गुरुणा भणिओ तत्थ गओ सुणइ देइ उल्लावं । एवं किंति च भणई न मत्थएणं तु वंदामि ॥ १४३ ॥ एवं तुमंत भई कोऽसि तुमं मज्झ चोयणाए उ ? | एवं तज्जाएणं पडिभणणाऽऽसायणा सेहे ॥ १४४ ॥ अज्जो ! किं न गिलाणं पडिजग्गसि पडिभणाइ किं न तुमं ? रायणिए य कहते कहं च एवं असुमणत्ते ॥ १४५ ॥ एवं नो सरसि तुमं एसो अत्थो न होइ एवंति ।
एवं कहमच्छिदिय सयमेव कहेउमारभइ ॥ १४६ ॥ तह परिसं चि भिदइ तह किंची भणइ जह न सा मिलइ । ता अणुट्टियाए गुरुभणिअ सवित्थरं भणइ ॥ १४७ ॥ सेज्जं संथारं वा गुरुणो संघट्टिऊण पाएहिं । खामेइ न जो सेहो एसा आसायणा तस्स ॥ १४८ ॥ गुरु सेज्जसंथारगचिट्ठणनिसियणतुयट्टणेऽहऽवरा । गुरुउच्चसमासणचिट्ठणाइकरणेण दो चरिमा ॥ १४९ ॥ अणाढियं च थद्धं च पविद्धं परिपिंडियं । टोलगइ अंकुसं चेव तहा कच्छवरिंगियं ॥ १५० ॥
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द्वार २
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