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सोहग्गाइनिमित्तं परेसिं ण्हवणाइ कोउयं भणियं । जरियाइभूइदाणं भूईकम्मं विणिद्दिट्टं ॥ ११२ ॥ सुविणगविज्जाकहियं आइंखणघंटियाइकहणं वा । जं सास अन्नेसिं परिणापसिणं हवइ एयं ॥ ११३ ॥ तीयाइभावकहणं होइ निमित्तं इमं तु आजीवं । जाइकुलसिप्पकम्मे, तवगणसुत्ताइ सत्तविहं ॥ ११४॥ कक्ककुरुया य माया नियडीए डंभणंति जं भणियं । थीलक्खणाइ लक्खण विज्जामंताइया पयडा ॥ ११५ ॥ संतो इयाणि सोपुण गोमत्तलंदर चेव । उच्छिमणुच्छि जं किंचिच्छुभए सव्वं ॥ ११६ ॥ एमेव मूलुत्तरदोसा य गुणा य जत्तिया केई ! ते तंमी सन्निहिया संसत्तो भण्णए तम्हा ॥ ११७ ॥ सो दुविगप्पो भणिओ जिणेहिं जियराग-दोसमोहेहिं । गोउ किलिट्ठो, असंकिलिट्ठो तहा अन्नो ॥ ११८ ॥ पंचासवप्पसत्तो जो खलु तिहिं गारवेहिं पडिबद्धो । इत्थिगिहिसंकिलिट्ठो संसत्तो किलिट्ठो उ ॥ ११९ ॥ पासत्थाईएसुं संविग्गेसुं च जत्थ मिलई उ । तहि तारिसओ होई पियधम्मो अहव इयरो उ ॥ १२० ॥ उस्सुत्तमायरंतो उस्सुत्तं चेव पण्णवेमाणो ।
एसो उ अहाच्छंदो इच्छाछंदोत्ति एगट्ठा ॥ १२१ ॥ उस्सुत्तमणुवइटुं सच्छंदविगप्पियं अणुवाई | परतत्तिपवत्ती तितिणो य इणमो अहाच्छंदो ॥ १२२ ॥ सच्छंदमइविगप्पिय किंची सुहसायविगइपडिबद्धो । तिहिं गारवेहिं मज्जइ तं जाणाही अहाछंदं ॥ १२३ ॥ वक्खित्तपराहुत्ते पमत्ते मा कयाइ वंदिज्जा । आहारं च करिते नीहारं वा जइ करेइ ॥ १२४॥
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द्वार २
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