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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
नियमसार'८२ आदि में आत्मा के स्वरूप का विवरण निषेध रूप से किया गया है। इसी तरह केनोपनिषद्,८३ कठोपनिषद्,८४ बृहदारण्यक'५, माण्डूक्योपनिषद्,१८६ तैत्तिरीयोपनिषद्८७ और ब्रह्मविद्योपनिषद्८ में आत्मा के निषेधात्मक स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। सुबालोपनिषद्'८६ और गीता में भी आत्मा को अछेद्य, अभेद्य और अदाह्य कहा गया है।
१.४.१ ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग
जैनदर्शन में आत्मा का स्व-लक्षण उपयोग कहा गया है। यह उपयोग दो प्रकार का है :
(१) ज्ञानोपयोग; और (२) दर्शनोपयोग। जैनदर्शन में उपयोग शब्द चेतना का ही पर्यायवाची है। वस्तु या ज्ञेय को जानने रूप प्रवृत्ति को ही उपयोग कहा गया है। इस प्रकार उपयोग शब्द चेतना का ही कार्य अभिव्यक्त करता है। भगवतीसूत्र में कहा गया है - “उवओग लक्खणे णं जीवे"१६० ___ अर्थात् जीव का लक्षण उपयोग है। यह बात अनेक आगम ग्रन्थों में भी कही गई है। ठाणांगसूत्र में कहा गया है -
___“गुणओ उवयोग गुणो" ।' उत्तराध्ययनसूत्र में भी उपयोग को ही जीव का लक्षण कहा गया है - “जीवो उवओग लक्खणो।"१६२
१८२ नियमसार १७८-७६ । १८३ केनोपनिषद् खण्ड १ श्लोक ३ । १८४ कठोपनिषद् अ. १३ श्लोक १५ । १८५ बृहदारण्यक ८ श्लोक ८ । १८६ माण्डूक्योपनिषद् श्लोक ७ । १८७ तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मानन्दवल्ली २ अनुवाक ६ । १८८ ब्रह्मविद्योपनिषद्, श्लोक ८१-६१ । १८६ 'न जायते न म्रियते न मुह्यति न भिद्यते त दह्यते ।
न छिद्यते न कम्पते न कुप्यते सर्वदहनोऽयमात्मा ।।६।।' १६० भगवती १३/४/४८० । १६१ ठाणांगसूत्र ५/३/५३० । १६२ उत्तराध्ययनसूत्र २८/११ ।
-सुबालोपनिषद् ।
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