________________
विषय प्रवेश
कहा जाता है; तो मुक्त अवस्था में कर्म पुद्गल उसे प्रभावित करने में असमर्थ होते हैं। अन्य द्रव्यों की तरह आत्मा भी अनन्त गुणों का पंज है। उसमें, भावात्मक और अभावात्मक - अनेक गुण रहे हुए हैं। मात्र यही नहीं, सामान्य दष्टि से उसमें परस्पर विशेष विरोधी गुण भी पाये जाते हैं। वह एक भी है, अनेक भी है, नित्य भी है, अनित्य भी है, वह ज्ञाता द्रष्टा भी है और कर्ता-भोक्ता भी है। वह देह में रहते हुए भी देहातीत है। इस प्रकार जैन दार्शनिकों ने भावात्मक दृष्टि से आत्मा का चित्रण किया है।
६. निषेधात्मक रूप से आत्मा के स्वरूप का चित्रण
जैनदर्शन में सर्वप्रथम आचारांगसूत्र के पंचम अध्याय के छठे उद्देशक में आत्मा का निषेधात्मक वर्णन प्राप्त होता है। आचारांगसूत्र में आत्मा को अछेद्य, अभेद्य और अदाह्य कहा गया है।७७ आत्मा न दीर्घ है, न हृस्व है। वह न चतुष्कोण है, न परिमण्डल है। आत्मा में न वर्ण है, न गन्ध है, न शब्द है और न स्पर्श है आदि। आनन्दघन के अनुसार आत्मा का न वेष है, न भेष है, न वह कर्ता है और न कर्म है। इसे न देखा जा सकता है और न स्पर्श किया जा सकता है। आत्मा रूप, रस, गन्ध और वर्ण विहीन है। उसकी न कोई जाति है और न लिंग है। न वह गुरु है और न शिष्य। वह न लघु है और न बृहद है। न वह भोगी है, न योगी है और न रोगी है। न वह शीत है और न उष्ण है। वह न भाई है और न भगिनी है। वह न एकेन्द्रिय है और न द्वीन्द्रिय है। न वह स्त्री है और न पुरुष है। न वह ब्राह्मण है, न क्षत्रिय है, न वैश्य है और न शूद्र ही है।७६ ।।
आचारांगसूत्र के अतिरिक्त समयसार,१८० परमात्मप्रकाश,८१
१७६ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. २२२ । ।
-डॉ. सागरमल जैन । १७७ आचारांगसूत्र १/५/६ । १०८ ‘स न छिज्जई, न भिज्जई न इज्झई न हम्मइ, कं च णं सव्वलोए ।'
-आचारांगसूत्र १/३/३ । १७६ ठाणांगसूत्र ५/३/५३० । १८० समयसार ४६-५५ । ११ परमात्मप्रकाश ८६-६३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org