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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
२. आत्मा का देह से पृथक्त्व
जैनदर्शन के अनुसार संसार की सभी आत्माएँ सशरीरी हैं। वे स्वयं अपने शरीर की स्वामी हैं। फिर भी वे देह से भिन्न हैं।६२ डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल ने बारह भावना के पद्य में कहा है -
"देह देवल में रहे, पर देह से जो भिन्न है, है राग जिसमें, किन्तु जो उस राग से भी अन्य है। गुण भेद से भी भिन्न है, पर्याय से भी पार है, जो साधकों की साधना का, एक ही आधार है।।" १६३ अर्थात् जब तक जीव कर्म संयुक्त रहता है तब तक वह देह से अभिन्न प्रतीत होता है। फिर भी देहदेवल में रहते हुए वह विभु, शुद्ध, बुद्ध, चैतन्यपुंज आत्मा इस देह से भिन्न कहा गया है। जो शरीरादि के प्रति रागभाव आत्मा में दिखायी देता है; वह पर के कारण है।६४
३. आत्मा स्वयम्भू और सम्प्रभु है
आत्मा किसी अन्य द्वारा उत्पन्न नहीं है - अतः स्वयम्भू है। वह द्रव्यकर्म के आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष प्राप्त करने में स्वयं समर्थ होने के कारण सम्प्रभु है।६५ पंचास्तिकाय ६६ में आचार्य कुन्दकुन्द ने जीव के सम्प्रभुत्व व्यक्तित्व के विषय में कहा
१६२ पंचास्तिकाय गाथा २७ । १६३ 'बारह भावनाएँ - एक अनुशीलन' पृ. ११३ (संवर भावना)। -डॉ हुकमचन्द भारिल्ल । १६४ पंचास्तिकाय तत्त्वदीपिका, गाथा २७ की टीका । १६५ 'मैं हूँ अपने में स्वयं पूर्ण, पर की मुझ में कुछ गन्ध नहीं,
मैं अरस अरूपी अस्पर्शी, पर से कुछ भी सम्बन्ध नहीं ।। मैं रंगराग से भिन्न, भेद से भी भिन्न मैं निराला हूँ। मैं हूँ अखण्ड चैतन्यपिण्ड, निज रस में रमने वाला हूँ ।। मैं ही मेरा कर्ता-धर्ता, मुझ में पर का कुछ काम नहीं । मैं मुझ में रहने वाला हूँ, पर में मेरा विश्राम नहीं ।। मैं शुद्ध-बुद्ध अविरूद्ध एक, पर परिणति में अप्रभावी हूँ। आत्मानुभूति से प्राप्त तत्त्व, मैं ज्ञानानन्द स्वभावी हूँ ।।'
__-बारह भावनाएँ (अन्यत्वभावना) डॉ हुकमचन्द भारिल्ल । १६६ पंचास्तिकाय तत्त्वदीपिका गाथा ६९-७० की टीका ।
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