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विषय प्रवेश
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भी है।५८ जैन दार्शनिकों ने आत्मा को निष्क्रिय नहीं माना है; क्योंकि आत्मा को निष्क्रिय मानने पर शरीर में किसी प्रकार की क्रिया नहीं हो सकेगी।
१. आत्मा की सक्रियता
जैन दार्शनिकों की अपनी विशेषता है कि वे आत्मा को सक्रिय एवं परिणामी मानते हैं। वे आत्मा और पुद्गल को सक्रिय मानकर शेष द्रव्यों को निष्क्रिय मानते हैं।५६ तत्त्वार्थसूत्र के पंचम अध्याय में कहा है कि “निष्क्रियाणी च” अर्थात् धर्म, अधर्म और आकाश - ये तीन द्रव्य निष्क्रिय हैं। इसके विपरीत जीव और पुद्गल सक्रिय हैं। पूज्यपाद, अकलंकदेव आदि जैन आचार्यों ने आत्मा को सक्रिय बताया है। आत्मप्रदेशों में जिसके द्वारा परिस्पन्दन या कम्पन हो तथा एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में गमन हो अथवा जो द्रव्य में अन्तरंग और बहिरंग कारण से उसे एक अवस्था से दूसरी अवस्था में ले जाती है; वह क्रिया कहलाती है।६० गति, स्थिति, और अवगाहनरूप जो क्रियाएँ जीवद्रव्य में होती हैं, वे दो प्रकार की हैं - १. स्वभाविक क्रियाएँ; और २. वैभाविक क्रियाएँ।
इन्हीं के कारण अवस्थान्तर या पर्याय परिवर्तन होता है। अतः आत्मा सक्रिय एवं परिणामी है।६१
न्यायवैशेषिक एवं मीमांसक आत्मा में शरीर के समवाय सम्बन्ध से क्रिया मानते हैं। वैदिक दार्शनिकों ने आत्मा को व्यापक तथा कटस्थ-नित्य मानने के कारण उसे निष्क्रिय व अपरिणामी माना है। सांख्य दार्शनिकों का तर्क है कि सत्, रज और तम गुणों के कारण ही क्रिया सम्भव है। वे आत्मा को निष्क्रिय सिद्ध करते हैं; क्योंकि पुरुष में ये गुण नहीं होते हैं। उन्होंने प्रकृति को सक्रिय और पुरुष को निष्क्रिय स्वीकार किया है।
१५८ तत्त्वार्थवार्तिक २/२६/२ । १५६ धवला १/१/१/१ । १६० (क) सर्वार्थसिद्धि ५, ७;
(ख) तत्त्वार्थवार्तिक ५, २२/१६ । १६१ (क) नियमसार, तात्पर्यवृत्ति टीका १८४;
(ख) गोम्मटसार, जीवकाण्ड ५६६ ।
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