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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
ही अर्थों में स्वीकार करते हैं। न्यायवैशेषिक और मीमांसक आत्मा को प्रथम अर्थ में ही नित्य मानते हैं, क्योंकि वे आत्मा में परिवर्तन या परिणमन स्वीकार करते है। अनित्य शब्द के भी यहाँ दो अर्थ दृष्टिगोचर होते है : १. विनाशशील; और २. परिवर्तनशील ।
चार्वाकदर्शन प्रथम अर्थ में आत्मा को अनित्य स्वीकार करता है। बौद्धदर्शन दूसरे अर्थ में आत्मा को अनित्य मानता है। किन्तु जैनदर्शन में समन्वय की दृष्टि से अनेकान्तवाद सिद्धान्त के आधार पर आत्मा को नित्यानित्य अथवा परिणामीनित्य माना गया है। शाश्वत या त्रैकालिक अस्तित्व की दृष्टि से आत्मा नित्य है, किन्तु परिवर्तनशीलता या पर्यायरूप परिणमन की दृष्टि से आत्मा नित्य नहीं है। अतः जैन दार्शनिकों के अनुसार आत्मा नित्यानित्य या परिणामीनित्य है।
१.३.४ आत्मा को निष्क्रिय मानने में कठिनाइयाँ
न्यायवैशेषिक दर्शन में आत्मा के साथ गुण और कर्म को भी निष्क्रिय माना गया है।५५ 'इसके प्रत्युत्तर में अकलंक का कहना है कि जैसे निष्क्रिय आकाश के साथ घट का संयोग होने पर घट में क्रिया नहीं होती; वैसे ही निष्क्रिय आत्मा के संयोग और प्रयत्न से शरीरादि में क्रिया नहीं हो सकती।५६ __ जैन दार्शनिकों ने आत्मा को पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से सक्रिय और निश्चयनय की दृष्टि से निष्क्रिय कहा है।५७ सांख्य दार्शनिक आत्मा या पुरुष को निष्क्रिय मानते हैं; किन्तु उनका पुरुष को सर्वथा निष्क्रिय मानना और प्रकृतिजन्य अंहकारादि को क्रियावान् मानना उचित नहीं है। इसी प्रकार नैयायिकों का आत्मा को निष्क्रिय मानना और परमाणु और मन को सक्रिय मानना उचित नहीं है। तत्त्वार्थवार्तिक में कहा है कि आत्मा को यदि निष्क्रिय माना जाय तो बन्ध और मोक्ष भी नहीं हो सकेगा। अतः आत्मा क्रियावान् है। पुनः वह अव्यापक द्रव्य है। इसलिए सक्रिय
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१५५ वैशेषिकसूत्र ५/२/२१-२२ । १५६ तत्त्वार्थवार्तिक ५/७/८ । १५७ वही ५/७/४५-४६ ।
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