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विषय प्रवेश
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आत्मा की नित्यता को मानते हैं। आत्मा अनादि एवं शाश्वत है। नित्य आत्मवाद दैहिक मृत्यु के पश्चात् अगले जन्म में पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों के विपाक को स्वीकार करता है। ईसाई और इस्लाम धर्म पुनर्जन्म नहीं मानते, फिर भी वे मृत्यु के उपरान्त शुभाशुभ कर्मों का फल मानते हैं। गीता शाश्वत एवं नित्य आत्मवाद को स्वीकार करती है। जैनदर्शन ने द्रव्यार्थिकनय से नित्य आत्मवाद को माना है। वेदान्त एवं सांख्यदर्शन आत्मा को कूटस्थ-नित्य मानते हैं। किन्तु उनका एकान्तिक नित्यता का यह सिद्धान्त दोषपूर्ण है। __जैनदर्शन मोक्ष की प्राप्ति के लिए न तो एकान्त नित्य-आत्मवाद और न एकान्त अनित्य-आत्मवाद को स्वीकार करता है। एकान्तरूप से आत्मा को नित्य या अनित्य मानने पर मोक्ष की व्याख्या सम्भव नहीं होती। आचार्य हेमचन्द्र ने वीतराग स्तोत्र'५२ में कहा है कि आत्मा को एकान्त नित्य मानने पर सुख-दुःख, शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप आदि भिन्न अवस्थाएँ घटित नहीं होंगी। जैनदर्शन सापेक्षरूप से आत्मा को नित्य और अनित्य - दोनों स्वीकार करता है। उत्तराध्ययनसूत्र'५३ में आत्मा को नित्य कहा गया है। भगवतीसूत्र'५४ में भी जीव को अनादि, अविनाशी, अक्षय, ध्रुवादि नित्य कहा है; किन्तु यहाँ आत्मा की नित्यता का प्रतिपादन द्रव्यार्थिक नय से हुआ है। जैनदर्शन आत्मा को एकान्त रूप से नित्य या अपरिणामी नहीं मानता है। आत्मा की नित्यता एवं
अनित्यता को लेकर भारतीय दार्शनिकों में मुख्य रूप से निम्न तीन मत परिलक्षित होते हैं -
१. उपनिषद्-वेदान्त तथा सांख्ययोग में आत्मा को नित्य माना गया है। २. चार्वाक और बौद्धदर्शन में आत्मा को अनित्य माना गया है। ३. जैनदर्शन में आत्मा को नित्यानित्य स्वीकार किया गया है।
भारतीय दार्शनिकों में नित्य और अनित्य शब्दों के अर्थ को लेकर मतभेद है। मुख्य रूप से नित्य शब्द के दो अर्थ दृष्टिगोचर होते हैं : १. शाश्वत; और २. अपरिवर्तनीय।
सांख्यदर्शन और वेदान्तदर्शन आत्मा की नित्यता को इन दोनों
१५२ वीतरागस्तोत्र ८/२ एवं ३ । १५३ उत्तराध्ययनसूत्र १४/१६ । १५४ भगवतीसूत्र ६/६/३/६७ ।
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