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________________ विषय प्रवेश है कि अनादि काल से यह जीव स्वयं ही शुभाशुभ कर्मों का कर्ता-भोक्ता होता हुआ, द्रव्यकर्म और भावकों के उदय से मोह, राग, द्वेष, कषाय एवं आठ कर्म आवरणों से आच्छादित होकर ४ गति, २४ दण्डक और ८४ लाख जीव योनियों में भव भ्रमण करता है और जिनेन्द्र प्रभु द्वारा कथित मार्ग पर आरूढ़ होकर जिनागम, जिनवाणी का अनुसरण करते हुए समस्त कर्मों का उपशम और क्षय करके मिथ्या तथा अविद्या के तिमिर को हटाकर अनन्त शक्ति से युक्त होकर शुद्ध आत्मस्वरूप व मोक्ष की उपलब्धि करता है। इस प्रकार आत्मा के स्वयम्भू तत्त्व एवं सम्प्रभुत्व की सिद्धि होती है।६८ ४. आत्मा देहव्यापी और सर्वव्यापी दोनों ही है जैन दार्शनिकों ने आत्मा को अपेक्षा भेद से देहव्यापी एवं सर्वव्यापी माना है। आत्मा नित्य ज्ञानमय है। आत्मा ज्ञानस्वरूप होने से ज्ञान परिमाण है। ज्ञान को ज्ञेय परिमाण कहा गया है क्योंकि वह समस्त ज्ञेय पदार्थों को जानता है तथा ज्ञेय समस्त लोकालोक है। इस कारण से ज्ञान सर्वव्यापी है - आत्मज्ञान स्वरूप है। इसलिए आत्मा भी सर्वगत सिद्ध होती है।६६ प्रवचनसार'७० में बताया है कि यदि आत्मा को ज्ञान परिमाण न माना जाय तो ज्ञान को आत्मा से छोटा-बड़ा माना जायेगा और ज्ञान का सम्बन्ध चैतन्य के साथ नहीं मानने से ज्ञान अचेतन हो जायेगा। अतः आत्मा लोकालोक के समस्त पदार्थों को जानने में असमर्थ हो जायेगी या नहीं जान सकेगी। यदि आत्मा ज्ञान से बड़ी है तो ज्ञान के बिना आत्मा पदार्थों को नहीं जान सकेगी। अतः आत्मा सर्वव्यापी इसलिए कहलाती है क्योंकि वह ज्ञान परिमाण ही है। केवली भगवन्त कर्मावरणरहित होकर अपने अव्याबाध केवलज्ञान से १६७ पंचास्तिकाय तत्त्वदीपिका एवं तात्पर्यवृत्ति गाथा ७० की टीका । १६८ अन्ययोग व्यच्छेदिका एवं श्लोक ६ । १६६ स्याद्वादमंजरी पृ. ७० । १७० 'आदा णाणपमाणं गाणं णेयप्पमाणमुद्दिटुं । 'णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं ।। २३ ।।' १७१ कार्तिकेयानुप्रेक्षा २५४-५५ । -प्रवचनसार १ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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