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________________ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा २. अशुद्ध निश्चयनय या पर्यायदृष्टि से आत्मा अपनी मानसिक अनुभूतियों का वेदक (भोक्ता) है। ३. पारमार्थिक दृष्टि से तो आत्मा भोक्ता और वेदक नहीं मात्र द्रष्टा या साक्षी है।३७ गीता और बौद्धदर्शन भी सशरीर जीवात्मा में भोक्तृत्व को स्वीकार करते हैं। आनन्दघनजी आत्मा के भोक्तृत्व स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि - "सुख-दुःख रूप करम फल जानों, निश्चय एक आनन्दो रे, चेतनता परिणामन चूके, चेतन कहे जिनचन्दों रे।" सुख-दुःखरूप परिणमन कर्मों के विपाक के कारण है। निश्चय में तो आत्मा आनन्दमय है। कर्मों के परिणामस्वरूप जो सुख-दुःखरूप संवेदनाएँ होती हैं; उसमें कर्म निमित्त कारण है और आत्मा उपादान कारण है, जबकि आनन्दानुभूति आत्मा का निजगुण है।३८ निश्चय की दृष्टि से तो शुभाशुभ कर्मों का सुख-दुःखरूप प्रतिपल का संवेदन आत्मा के स्वभाव से भिन्न है; इसलिए सुख-दुःख पुद्गल के निमित्त से होनेवाली आत्मा की वैभाविक पर्याय हैं।१३६ शुद्ध आत्मा तो उनकी साक्षी है; वह तो मात्र दर्शक है। इस प्रकार निश्चयनय की अपेक्षा से आत्मा कर्म की कर्ता एवं भोक्ता नहीं है; किन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा से आत्मा शुभाशुभ कमों की कर्ता एवं उनके सुख-दुःखरूपी. फल की भोक्ता भी है। लेकिन कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों ही गुण देहधारी बद्धात्मा में ही घटित होते हैं, न कि मुक्त आत्मा में।। __ उत्तराध्ययनसूत्र में भी आत्मा को सुख और दुःख का कर्ता एवं भोक्ता स्वीकार किया गया है।०२ समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने व्यवहारनय की अपेक्षा से आत्मा को पुद्गलकर्मों की कर्ता और -आनन्दघन ग्रन्थावली । १३७ समयसार ८१-६२ । १३८ 'वासूपुज्य जिन स्तवन' । १३६ (क) उत्तराध्ययनसूत्र २०/३७ । (ख) समयसार गाथा ६१-६२ की आत्मख्याति टीका । उत्तराध्ययनसूत्र २०/३७ । १४१ वही । १४२ उत्तराध्ययनसूत्र २०/३७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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