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विषय प्रवेश
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आदिपुराण में कहा गया है कि परलोक सम्बन्धी पुण्य-पापजन्य फलों की भोक्ता आत्मा है।३१ ___स्वामी कार्तिकेय ने आत्मा को कर्म विपाकजन्य सुख-दुःख की भोक्ता बतलाया है।३२
षड्दर्शनसमुच्चय की टीका३३ में सांख्य दार्शनिकों का मन्तव्य इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि आत्मा वस्तुतः ऐन्द्रिक विषयों की भोक्ता नहीं है, अपितु उपचार से भोक्ता है। वस्तुतः पुरुष भोक्ता नहीं; बुद्धि में झलकनेवाले सुख-दुःख की छाया 'पुरुष' में पड़ने के कारण पुरुष भोक्ता कहलाता है। जैसे स्फटिकमणि को जिस रंग के संसर्ग में रखा जाय, वह वैसी ही प्रतीत होती है; वैसे ही स्वच्छ निर्मल पुरुष, प्रकृति के सम्बन्ध से सुख-दुःखादि का भोक्ता बन जाता है। वस्तुतः प्रकृति ही कर्ता-भोक्ता है, पुरुष मात्र उपचार से भोक्ता है।
जैन दार्शनिक सांख्यों के इस मत से सहमत नहीं हैं। जैनदर्शन में आत्मा को उपचार से भोक्ता न मानकर वास्तविक रूप से भोक्ता स्वीकार किया गया है।३४ स्याद्वादमंजरी में सांख्य दार्शनिकों के मत की समीक्षा करते हुए वे लिखते हैं कि आत्मा औपचारिक रूप से नहीं; अपितु वास्तविक रूप से भोक्ता ही है।३५
जैनदर्शन आत्मा के भोक्तृत्व गुण को शरीरयुक्त बद्धात्मा में स्वीकार करता है।
६. व्यवहारदृष्टि और निश्चयदृष्टि :
डॉ. सागरमल जैन ने लिखा है१३६ : १. व्यवहारिक दृष्टि से शरीरयुक्त बद्धात्मा भोक्ता है।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा ।
१३१ आदिपुराण २४/२६२-६३ । । १३२ 'जीवो विहवइभुत्ता कम्मफलं सो वि य भुंजदे जम्हा ।
विवायं-विविहं सो चिय भुंजदि संसारे ।। १३३ षड्दर्शनसमुच्चय टीका कारिका ४८-४६ । १३४ स्याद्वादमंजरी, पृ. १३५ ।। १३५ स्याद्वादमंजरी, पृ. १३५ । १३६ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन'
भाग १ पृ. २२५ ।
-डॉ सागरमल जैन ।
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