SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषय प्रवेश १४३ १४४ अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से चैतसिक भावों की कर्ता माना है । नियमसार' एवं पंचास्तिकाय ४५ में भी व्यवहारनय से आत्मा में कर्तृत्व और भोक्तृत्व स्वीकृत किया गया है । निश्चयनय से तो आत्मा को ही स्व-स्वभाव की कर्ता और भोक्ता माना गया है । बृहद्रव्यसंग्रह ४१४६ और प्रमाणतत्त्वलोक' आदि ग्रन्थों में भी आत्मा के कर्तृत्व व भोक्तृत्व पर विभिन्न नयों की अपेक्षा से विचार किया गया है । - १४७ निष्कर्ष यह है कि संसारी आत्मा शरीर के माध्यम से एवं पूर्वकृत कर्मों के उदय के निमित्त से सुख - दुःखरूप संवेदन करती है, यह उसका भोक्तृत्त्व है और पूर्व कर्मों के उदय की स्थिति में शुभाशुभ भावरूप जो परिणमन करती है, वह उसका कर्तृत्व है I १०. जैनदृष्टि से अनित्य आत्मवाद की समीक्षा चार्वाकदर्शन अनित्य आत्मवाद ( क्षणिकवाद ) को स्वीकार करता है । इस अनित्य आत्मवाद को भूतात्मवाद, देहात्मवाद और उच्छेदवाद भी कहा जाता है। अजितकेशम्बल के अनुसार आत्मा स्वतन्त्र तत्त्व नहीं है; किन्तु उसकी उत्पत्ति पृथ्वी आदि भूतों के योग से होती है । सूत्रकृतांग में भी इस विचारधारा का उल्लेख उपलब्ध होता है। वहाँ कहा गया है कि पृथ्वी आदि पंचभूतों के संयोग से आत्मा उत्पन्न होती है और इस संयोग का विनाश हो जाने पर वह नष्ट हो जाती है ।' उत्तराध्ययनसूत्र में इस मान्यता का उल्लेख इन शब्दों में मिलता है कि शरीर में जीव स्वतः उत्पन्न होता है और शरीर नष्ट होने पर वह भी नष्ट हो जाता है। 1 बौद्धदर्शन के अनुसार आत्मा चित्त सन्ततिरूप है; १४८ १४६ १४३ समयसार - कर्तृकर्माधिकार गाथा ८१, ८२ एवं ८४ | १४४ नियमसार १३, १४ एवं १८ । १४५ पंचास्तिकाय तत्त्वदीपिका २७ 1 १४६ बृहद्रव्यसंग्रह गा. २, ८ एवं ६ और उसकी टीका । १४७ प्रमाणनयतत्त्वालोक ७ एवं ५६ । १४८ सूत्रकृतांग १/१ / ७८ उत्तराध्ययनसूत्र १४ / १८ । ४३ १४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy