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________________ विषय प्रवेश २७ अर्थात् चेतन (आत्मा) कभी भी अपनी चैतन्य अवस्था का त्याग नहीं करता है, यह जिनेश्वरदेव का वचन है। यहाँ आनन्दघनजी चेतना को न तो चार्वाकदर्शन की तरह पृथ्वी आदि चार भूतों से उत्पन्न गुण मानते हैं और न न्यायवैशेषिकदर्शन के समान उसे आत्मा का आगन्तुक गुण मानते हैं; अपितु उनके अनुसार चेतना आत्मा का स्वलक्षण है। यहाँ जैनदर्शन के आत्मा के चेतना गुण सम्बन्धी यह विचार आचार्य शंकर के अनुरूप है। जैनदर्शन का मानना है कि निर्वाण या मुक्ति की अवस्था में भी आत्मा में चेतना गुण रहता है। मात्र इतना ही नहीं मुक्ति की अवस्था में आत्मा की चेतना शक्ति पूर्णरूपेण विकसित होती है; जबकि संसारावस्था में उसकी चेतना शक्ति आवृत्त रहती है। किन्तु संसार दशा में जीव की चेतना शक्ति पूर्ण रूप से आच्छादित नहीं होती है। इस प्रकार जहाँ न्यायवैशेषिकदर्शन मुक्तावस्था में आत्मा में चेतना का अभाव मानता है और उसे आत्मा का आगन्तुक गुण कहता है; वहीं सांख्ययोग, वेदान्त और जैनदर्शन इसे आत्मा का लक्षण मानते हैं। आत्मा का यह चेतना लक्षण दर्शन और ज्ञान इन दो रूपों में प्रकट होता है। दर्शन सामान्य की चेतना है अतः निर्विकल्प है और ज्ञान विशेष की चेतना है अतः सविकल्प है। इनमें दर्शन (निराकार चेतना) अभेद अर्थात् वस्तु के सामान्य स्वरूप को ग्रहण करता है। जबकि ज्ञान (साकार चेतना) भेद अर्थात् वस्तु के विशेष स्वरूप को ग्रहण करता है। इन दोनों प्रकार की चेतनाओं से ही आत्मा की सत्ता का बोध होता है। आत्मा के ज्ञान-दर्शन रूप चेतन गुणों की विशेष चर्चा आगे ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के रूप में की जायेगी। त्रिविध चेतना जैनदर्शन में आत्मा को परिणामी नित्य कहा गया है अर्थात् आत्मा नित्य होते हुए भी परिवर्तनशील है, अर्थात् उसका उपयोग या ज्ञानरूप पर्यायों में परिणमन होता रहता है। जैन दार्शनिकों के अनुसार आत्मा का यह परिणमन तीन प्रकार का है। वैसे तो ' 'द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः' -तत्त्वार्थसूत्र (२/६)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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