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________________ २८ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा चेतना लक्षण से युक्त आत्मा अपने आप में एक अक्षय अखण्ड तत्त्व है; फिर भी आत्मद्रव्य का पर्याय की अपेक्षा से तीन रूपों में परिणमन होता है। त्रिविध चेतना का वर्गीकरण इस प्रकार है : १. ज्ञान-चेतना; २. कर्मचेतना (संकल्प); और ३. कर्म-फल-चेतना (सुखदुःखरूप अनुभूति)। इन तीनों प्रकार की चेतनाओं का उल्लेख प्रवचनसार२ एवं अध्यात्मसार३ आदि ग्रन्थों में मिलता है। आनन्दघनजी भी वासुपूज्य स्तवन में लिखते हैं “परिणामी चेतन परिणामों, ज्ञान करमफल भावि रे।। ज्ञान करमफल-चेतन कहिये, लीजो तेह मनावी रे।।"८४ शुद्धस्वभाव में परिणमन करनेवाली चेतना ज्ञानचेतना है, जबकि रागादि भावों में परिणमन करनेवाली चेतना कर्मचेतना है और सुख-दुःखादि का अनुभव करनेवाली चेतना कर्मफलचेतना है। ज्ञानचेतना शुद्ध और भूतार्थ है। वह ज्ञानादि गुणों में परिणमन करती है। कर्मचेतना रागादि भावों के साथ कर्तारूप में परिणमन करती है जैसे “मैने यह किया है, मैं यह करूँगा" आदि। सुख-दुःख आदि विविध अनुभूतियाँ कर्मफलचेतना है। कर्मचेतना •और कर्मफलचेतना पर के निमित्त से उत्पन्न होती है। इनके निमित्त से आत्मा रागादि परिणामवाली हो जाती है। अतः ये दोनों बहिरात्मा या बुद्धात्मा से सम्बन्धित हैं। मनोविज्ञान की दृष्टि में चेतना आधुनिक मनोविज्ञान में भी चेतना के तीन रूप माने गये है१. Knowing (जानना); २. Willing (इच्छा करना); और ३. Feeling (अनुभव करना)। मनोविज्ञान की शब्दावली में इन्हें - १. ज्ञान; २. संकल्प; तथा ३. अनुभूति कहा जाता है। ८२ प्रवचनसार गाथा १२३-२५ । ८३ 'ज्ञानाऽख्या चेतना बोधः, कर्माख्या द्विष्टरक्तता । ___ जन्तोः कर्मफलाऽख्या सा वेदना व्यपदिश्यते ।।४।।' -अध्यात्मसार आत्मनिश्चयाधिकार ४५ । ८४ 'वासुपूज्य जिन स्तवन' -आनन्दघन ग्रन्थावली । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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