________________
२६
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
आत्मा है वहाँ उपयोग (चेतना) है; जहाँ उपयोग है वहाँ आत्मा है" अर्थात् उपयोग और आत्मा में तादात्म्य है। वही उसका स्वलक्षण या स्वरूप है।५ देवचन्द्र जी नयचक्रसार में लिखते हैं“चेतनालक्षणो जीवः चेतना च ज्ञानदर्शनोपयोगी-अनन्तपर्याय
पारिणामिक-कर्तृत्व-भोक्तृत्वादि लक्षणो जीवास्तिकायः।" इस प्रकार देवचन्द्रजी ने चेतना के साथ-साथ कर्तृत्व भोक्तृत्वादि अन्य लक्षणों का भी निर्देश किया है। आनन्दघनजी ने भी “आनन्दघन चेतनमय मूरति", इस कथन के द्वारा आत्मा का लक्षण चेतना प्रतिपादित किया है। आनन्दघनजी शान्तिजिन स्तवन में लिखते हैं
“आपणो आतम भाव जे एक चेतना धार रे,
आवर सवि संयोग थी, वो निज परिकर सार रे।"७६ इस प्रकार जैन दृष्टि में आत्मा का स्वलक्षण उपयोग अर्थात् ज्ञान-दर्शन है। दूसरे शब्दों में ज्ञाताद्रष्टा भाव ही आत्मा का निजगुण है। ज्ञान-दर्शन के अतिरिक्त अन्य पदार्थ आत्मा के साथ संयोग सम्बन्ध से रहे हुए हैं। वे उसका स्वरूप लक्षण नहीं हैं। यही कथन संथारापोरसीसूत्र, नियमसार और भावप्राभृत आदि में भी पाया जाता है। आत्मा का मुख्य लक्षण चेतना है; यह बात मुनि ज्ञानसागरजी ने भी कही है :
“धर्मी अपने धर्म को तजे न तीनों काल।
आत्मा न तजे ज्ञान गुण जड़ किरिया की चाल ।।"७९ अर्थात आत्मा चैतन्य स्वभाव का तीन काल में भी त्याग नहीं करती। पुनः यही बात आनन्दघनजी ने वासुपूज्य भगवान् के स्तवन में भी कही है -
“चेतनता परिणाम न चूके चेतन कहे जिन चंदो रे।"८०
७७
७५ 'यत्रात्मा तत्रोपयोगः यत्रोपयोगस्तत्रात्मा' ।। ३३३२ ।।
-निशीथचूर्णि। ७६ 'शान्तिजिन स्तवन'
-आनन्दघन ग्रन्थावली । ‘एगो में सासओ अप्पा, नाणदसण संजुओ । सेसा में बाहरा भावा, सब्वे संजोग लक्खणा ।।'
-संथारापोरसीसूत्र । ‘एगो में सासदो अप्पा नाणदंसण लक्खणो । __सेसा में बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा ।। १०२ ।।' -नियमसार एवं भावप्राभृत ५६ ।
मुनि ज्ञानसागर - उद्धृत आनन्दघन ग्रन्थावली पृ. २६३ । _ 'वासुपूज्य स्तवन'
-आनन्दघन ग्रन्थावली।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org