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विषय प्रवेश
१.३.२ आत्मा के लक्षण
जैनदर्शन की दृष्टि से जो ज्ञानादि पर्यायों से युक्त है, वही आत्मा है। जैनदर्शन में मुख्य रूप से दो पदार्थ माने गए हैं - १. जीव और
२. अजीव। इनमें जीव उसके ज्ञानोपयोग के द्वारा ही पहचाना जा सकता है। वैसे जैनदर्शन में आत्मा का लक्षण उपयोग अर्थात् चेतना माना गया है। भगवतीसूत्र, ठाणांगसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र २ आदि जैन आगमों में आत्मा का लक्षण उपयोग ही बताया गया है। परवर्ती जैनाचार्य७३ एवं सन्त-साधक भी आत्मा का लक्षण उपयोग अर्थात् चेतना ही मानते रहे हैं। निशीथचूर्णि में कहा गया है कि “जहाँ
७० भगवतीसूत्र १३/४/४८० । ७१ ठाणांगसूत्र ५/३/५३० ।
उत्तराध्ययनसूत्र २८/१० । (क) 'उपयोगो लक्षणम्' ।।
-तत्त्वार्थसूत्र २/८ । (ख) 'सामान्यं खलु लक्षणमुपयोगो भवति सर्वजीवानां ।
साकारोऽनाकारश्च सोऽष्टभेदश्चतुर्धा तु ।। १६४ ॥' -प्रशमरतिप्रकरणकारिका । (ग) 'सव्वण्हुणाण दिट्ठो जीवो उवओग लक्खणो निच्वं ।। २४ ।।' -समयसार । (घ) 'उवयोग एवं हमिक्को चेदण भावो जीओ चेदण गुण वज्जिया सेसा ।। ३७ ।।'
-नियमसार २ । (च) 'उपयोगो खलु दुविहो णाणेण य दंसणेण संजुत्तो।
जीवस्स सव्वकालं अणण्ण भूदं वियाणिहि ।। ४० ।।' -पंचास्तिकाय । (छ) 'उपयोगो विनिर्दिष्टस्तत्र लक्षणमात्मनः ।। द्विविधो दर्शन-ज्ञान-प्रभेदेन जिनाधिपैः ।। ६ ।।
-योगसार प्राभृत। (ज) 'चैतन्य लक्षणो जीवो, यश्चैतद्विपरीतवान् ।
अजीवः स समाख्यातः पुण्यं सत्कर्म पुद्गलाः ।। ४६ ।। -षड्दर्शन समुच्चय । (झ) 'चैतन्य स्वरूपः परिणामी कर्ता साक्षाद् भोक्ता स्वदेह परिमाणः । प्रतिक्षेत्रं भिन्नं पौद्गलिका दृष्ट्वांश्चायम् ।। ५५-५६ ।।'
-प्रमाणनय तत्त्वलोक ७ । ७४ (क) 'चेतन लक्षण आत्मा, आतम सत्ता मांहि ।
सत्ता परिमित वस्तु है, भेद तिहूं मैं नाहि ।। ११ ।। -समयसारनाटक, मोक्षद्वार । (ख) 'चेतना लक्षणो जीवः चेतना च ज्ञानदर्शनोपयोगी ।। अनन्तपर्याय पारिणामिक कर्तृत्व भोक्तृत्वादि लक्षणो जीवास्तिकायः ।।
-देवचन्द्रजी कृत नयचक्रसार ।
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