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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
मुहूर्त, प्रहर, दिन, पक्ष, मास, वर्ष आदि रूप व्यवहारिक काल लोकाकाश के एक भाग अर्थात् मनुष्य क्षेत्र तक ही है । ३८ व्यवहारिक काल को लोकाकाश तक सीमित होने के कारण असंख्य माना गया है । किन्तु निश्चय दृष्टि से तो काल अनन्त द्रव्य है । उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार भी काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने का मुख्य आधार यह है कि जिस प्रकार गति और स्थिति के निमित्तकारण धर्म और अधर्म द्रव्य हैं; उसी प्रकार जीव और अजीव द्रव्य के परिणत होने का भी कोई बाह्य निमित्त कारण अवश्य होता है और वह काल ही है । इसी अर्थ में काल स्वतन्त्र द्रव्य है । लोकाकाश में कालद्रव्य के निमित्त से ही परिणमन होता है । अलोकाकाश का परिणमन लोकाकाश की अपेक्षा से ही है । लोकाकाश में पर्याय परिवर्तन का सहकारी कारण काल है । बृहद्रव्यसंग्रहवृत्ति में बताया हैं कि
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“ पदार्थ परिणतेर्यत्सहकारित्व सा वर्तना भण्यते । ”
अर्थात् पर्यायरूप परिवर्तनों में प्रति समय में द्रव्य के ध्रौव्य का अनुभव होता है, वह वर्तना है । तत्त्वार्थराजवार्तिक में कहा गया है कि “नैश्चयिक दृष्टि से जो वर्तना लक्षणवाला द्रव्य कालाणु है; वही काल कहलाता है ।"३६ इस काल के निमित्त से द्रव्य में परिवर्तन भी होता है और अस्तित्व की ध्रुवता भी रहती है । अतः यह कालद्रव्य भी उत्पाद, व्यय और धौव्य रूप त्रिपुटी से युक्त माना गया है “उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्तं सत् ।”
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यह बात कालाणु पर भी लागू होती है । इसी परिणमन रूप कालाणु को द्रव्य स्वीकार किया है। द्रव्य की भूत एवं वर्तमानकालीन पर्यायों को व्यवहारिककाल की संज्ञा दी गई है। बृहद्रव्यसंग्रहवृत्ति में बताया है कि :
" तस्य पर्याय संबन्धिनी याऽसौ समयघटिकादिरूपा स्थितिः सा व्यवहारकालसंज्ञा भवति, न च पर्याय इत्यभिप्रायः ।”
३८ ' समएं समयखेतिए' ।
३६ तत्त्वार्थराजवार्तिक ५ / २११ ।
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तत्त्वार्थसूत्र ५/३० ।
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- उत्तराध्ययनसूत्र ३६/७ ।
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