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विषय प्रवेश
और काल के सम्बन्ध में सामान्य रूप से सभी दर्शनों में चर्चा उपलब्ध होती है। आकाश (Space) और काल (Time) की अवधारणाएँ वैज्ञानिक धरातल पर भी विशिष्ट महत्त्व रखती हैं। जैन दार्शनिकों के अनुसार ही नहीं अपितु वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी वे आवश्यक सिद्ध होती हैं। 'काल' के पयार्यवाची शब्द भी उपलब्ध होते हैं। जैनदर्शन की द्रव्यमीमांसा में 'काल' का पर्यायवाची शब्द 'समय' मिलता है। अनुयोगद्वारसूत्र में समय को काल कहा है।२६ श्वेताम्बर और दिगम्बर विद्वानों में एकमत है कि काल अस्तिकाय नहीं है; क्योंकि कालद्रव्य में प्रदेशप्रचयत्व अर्थात् विस्तार गुण नहीं होता। काल में वर्तमान समय का महत्त्व होता है - भूत व्यतीत हो चुका है और भविष्य अनुत्पन्न होता है। कालद्रव्य का अतीत नष्ट होने के कारण इसका स्कन्ध नहीं बनता है। इसका तिर्यक् प्रचय भी नहीं होता। इस कारण काल की गणना अस्तिकायों के अन्तर्गत नहीं होती। अतः वह अस्तिकाय नहीं है। श्वेताम्बर आचार्यों ने काल को दो भागों में विभाजित किया है -
१. व्यवहारिक काल और २. नैश्चयिक काल। व्यवहारिक काल को औपचारिक काल भी कहा जाता है। जैन सिद्धान्तदीपिका में आचार्य तुलसी लिखते हैं कि
“कालश्च। जीवा-जीव पर्यायत्वात् औपचारिकद्रव्यमसौ इत्यस्य-प्रथग् ग्रहणम्। क्षणवर्तित्वान्न च अस्तिकायः”
अर्थात् काल, जीव और अजीव का पर्याय है। इस प्रकार यह औपचारिक द्रव्य है और उसे पाँचों अस्तिकाय द्रव्यों से अलग ग्रहण किया गया है। निश्चयदृष्टि से तो काल जीव और अजीव का पर्याय रूप है; किन्तु व्यवहारदृष्टि में काल द्रव्य है। काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने का कारण उसकी उपयोगिता है। तत्त्वार्थसूत्र में पण्डित सुखलालजी लिखते हैं कि “उपकारणं द्रव्यं” अर्थात् वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व - इन पाँच उपकारों के कारण काल द्रव्य की कोटि में आता है। उत्तराध्ययनसूत्र में
३६ अनुयोगद्वारसूत्र १/१/३६ । ३७ 'जं जस्स आउगं खलु तं दसभागो समं विभइऊणं ।
मज्झिल्लट्ठविभागो कुलगरकालं वियाणाहि ।।'
-विशेषावश्यकभाष्य ।
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