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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
१. धर्म; २. अधर्म;
३. आकाश; ४. जीव; ५. पुद्गल और ६. काल । यहाँ हम इन पंचास्तिकायों एवं षड्द्रव्यों का अति संक्षेप विवेचन करेंगे। हमारे शोध प्रबन्ध का मुख्य प्रतिपाद्य तो जीव द्रव्य ही है। इसलिये यहाँ अन्य द्रव्यों की विस्तृत विवेचना अपेक्षित नहीं है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि पंचास्तिकायों में काल को जोड़कर ही षड्द्रव्यों की अवधारणा बनी है। अतः पहले पंचास्तिकायों और अन्त में कालद्रव्य का विवेचन करेंगे।
१. धर्मास्तिकाय पंचास्तिकायों में प्रथम स्थान धर्मास्तिकाय का है। सामान्यतः धर्म शब्द के विभिन्न अर्थ होते हैं - आत्मशुद्धि की साधनारूप धर्म, वस्तुस्वभाव (वत्थु सहावो धम्मो), उपासना, सामाजिक कर्त्तव्यरूप धर्म आदि हैं; किन्तु प्रस्तुत सन्दर्भ में धर्म शब्द सर्वथा भिन्न अर्थ में व्यवहृत हुआ है। “गतिसहायोधर्मः, गमन प्रवृतानां जीव पुद्गलानां गतौ उदासीनभावेन अनन्य सहायक द्रव्यं धर्मास्तिकायः, यथा-मत्स्यानां जलम्" अर्थात् जीव और पुद्गल द्रव्य को गति करने में जो सहायक तत्त्व होता है उसे धमास्तिकाय कहा है। जीव
और पुद्गल की गति के सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्पन्दन तक में यह धर्मास्तिकाय सहयोगी होता है। गति करने में उपादान कारण तो जीव या पुद्गल स्वयं ही है, परन्तु निमित्त कारण के रूप में धर्मास्तिकाय की अपनी महत्ता होती है। इसके बिना जीव या पुद्गल गति करने में असमर्थ है। जैसे मछली में गति करने की स्वतः शक्ति होती है परन्तु जल के अभाव में वह गति नहीं कर सकती। जल में स्वतः गति करने की शक्ति नहीं होती। फिर भी जल की सहायता के बिना मछली तैर नहीं सकती। वैसे ही जीव और पुद्गल की गति में धर्मद्रव्य (धर्मास्तिकाय) का अनिवार्य रूप से सहयोग उपलब्ध होता है। इसी के सहयोग से जीव या पुद्गल गति क्रिया कर सकता है। फिर भी यह धर्मद्रव्य निष्क्रिय है। यह किसी को गति करने की प्रेरणा नहीं देता और कोई उसका सहयोग ले तो मना भी नहीं करता। माध्यस्थ भाव से यह सहयोगी होता है। अतः धर्मास्तिकाय को जीव और पुद्गल की गति करने
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