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विषय प्रवेश
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में उदासीन भाव से अनन्य सहयोगी के रूप में स्वीकृत किया गया है। डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि धर्मद्रव्य प्रसारित स्वभाव वाला होकर भी अमूर्त ( अरूपी) और अचेतन है । धर्मद्रव्य एक और अखण्ड द्रव्य है । जहाँ जीवात्माएँ और पुद्गल अनेक हैं वहाँ धर्म एक ही है । यह द्रव्य असंख्य प्रदेशी माना गया है । उत्तराध्ययनसूत्र में इसकी गति व लक्षण की चर्चा उपलब्ध होती है । “ गई लक्खणोउ धम्मो” अर्थात् धर्मास्तिकाय गति लक्षण वाला होता I इसका विस्तृत विवरण भगवतीसूत्र में भी मिलता है । उसमें कहा गया है कि जीवों का आना, जाना, बोलना और पलकों का झपकना इस प्रकार वचन और काया की प्रवृत्तियाँ धर्मास्तिकाय के सहयोग से होती हैं ।" आचार्य नेमिचन्द्र द्रव्यसंग्रह में धर्मद्रव्य का लक्षण बताते हुए लिखते हैं कि जीव और पुद्गल की गति में सहायक द्रव्य धर्मास्तिकाय है । १२ यह धर्मास्तिकाय लोक व्यापी है। अलोक में यह नहीं है। इसलिए सिद्धात्माएँ भी लोक के अग्रभाग में स्थित हैं । उत्तराध्ययनसूत्र में इसे अनादि एवं अपर्यवसित (नित्य) कहा गया है । ३
मन,
आधुनिक वैज्ञानिकों ने इसे ईथर नामक एक अदृश्य पदार्थ स्वीकार किया है। प्रो. जी. आर. जैन ने "Cosmology Old and New" में धर्मद्रव्य के समरूप ईथर को अभौतिक, अविभाज्य, अखण्ड आकाश के समान स्व में स्थित तथा गति का सहयोगी माना है ''
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२. अधर्मस्तिकाय
अधर्म द्रव्य को भी अस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत माना जाता है उत्तराध्ययनसूत्र में अधर्म को स्थिति - सहायक द्रव्य
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माना है । ५
€ 'डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ' पृ. १०६-१०७ ।
१०
उत्तराध्ययनसूत्र, २८/६/
११ भगवई १३ / ४ / ५६ ।
१२ बृहद्रव्य संग्रह, गा. १७ ।
१३ उत्तराध्ययन सूत्र ३६/८ ।
उत्तराध्ययनसूत्र तृतीय भाग पृ. १८५ ।
१५ 'अहम्मो ठाणलक्खणो । '
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- आचार्य हस्तीमलजी । - उत्तराध्ययनसूत्र २८/६ ।
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