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________________ विषय प्रवेश अस्तिकाय शब्द की चर्चा में जिस प्रदेशप्रचयत्व की बात कही जाती है उसमें ऊर्ध्व और तिर्यक दोनों प्रकार का प्रचयत्व होता है अर्थात् उनमें लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई तीनों ही पाई जाती हैं। जैनदर्शन की यह विशेषता है कि वह न केवल मूर्त पुद्गल द्रव्य में ही प्रदेशप्रचयत्व मानता है अपितु अमूर्त धर्म, अधर्म और जीवादि में भी प्रदेशप्रचयत्व मानता है। काल द्रव्य, जिसे अनस्तिकाय माना गया है उसमें भी प्रदेशप्रचयत्व तो है किन्तु वह मात्र ऊर्ध्व प्रचयत्व है। दूसरे कालाणु स्कन्धरूप में भी परिणत नहीं होते हैं। वे केवल सीधी रेखा में एक-दूसरे से स्वतन्त्र होकर स्थित हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनाचार्यों ने पंचास्तिकाय और षड्द्रव्य की अवधारणाओं को परस्पर समन्वित करने का प्रयास किया है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि काल को एक स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में मान्यता परवर्ती काल में ही मिली है। कर्मास्रव के भाष्यमान्य पाठ का “कालश्चेत्येके" कथन यही सूचित करता है कि तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक कुछ आचार्य काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकारते थे, किन्तु कुछ आचार्य काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं स्वीकारते थे। भगवतीसूत्र में भी काल को जीव और पुद्गल का पर्याय बताया गया है। यहाँ हम इन सब विवादों की गहराई में न जाकर केवल यह चर्चा करेंगे कि जैनदर्शन में स्वीकृत षड्द्रव्य कौन-कौन से हैं और उनके लक्षण क्या हैं? डॉ. सागरमल जैन एवं अन्य कुछ विद्वानों की मान्यता है कि जैनदर्शन की मूल अवधारणा अस्तिकाय की है। द्रव्य की अवधारणा तो उसने न्याय-वैशेषिक दर्शन से ग्रहण की है और उसे अपने प्राचीन अस्तिकाय की अवधारणा के साथ समाहित किया है। द्रव्य शब्द का अर्थ “द्रवति इति द्रव्यं" अर्थात् जो परिणमनशील है या परिवर्तनशील है वही द्रव्य है। दूसरे शब्दों में जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य घटित होता है जो गुण और पर्यायों से युक्त है वही द्रव्य कहा जाता है। जैनदर्शन निम्न छः द्रव्यों को स्वीकार करता है - ६ कर्मासव, ५/३८ 1 ७ भगवई (लाडनूं) १३/४/५६ । ८ 'डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ' पृ. १०६-१०७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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