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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
आदर्शात्मा या परमात्मा संस्कारजन्य नहीं है। वह स्व-स्वभाव है। जैनदर्शन के अनुसार परमात्मा को आदर्शों का पुंज माना गया है। उसी प्रकार आदर्शात्मा भी आदर्शों की पुंज है। अतः दोनों में आंशिक समरूपता ही देखी जा सकती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनदर्शन की बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा की अवधारणा किसी सीमा तक मनोविज्ञान की अबोधात्मा, बोधात्मा और आदर्शात्मा के समरूप है।
।। सप्तम अध्याय समाप्त ।।
प्रस्तुत विवेचन में अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी पर्याय एवं विवेचन श्री जयानन्द पाण्डे कृत असामान्य मनोविज्ञान पर आधारित हैं।
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