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________________ अध्याय ८ उपसंहार जैनदर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा वस्तुतः आत्मा की आध्यात्मिक विकास यात्रा की सूचक है। बहिरात्मा अन्तरात्मा बनकर किस प्रकार से परमात्मपद को प्राप्त कर सकती है, यह बताना ही त्रिविध आत्मा की अवधारणा का मुख्य लक्ष्य है। उसमें बहिरात्मा संसारी जीव है, जो विषयभोगों और वासनाओं में उलझी हुई है। उसका जीवन पशुवत् ही होता है। पशु से पशुपति या परमात्मा किस प्रकार बना जाय, इसकी साधना अन्तरात्मा के द्वारा की जाती है। जो अन्तरात्मा इस साधना को सफलतापूर्वक सम्पन्न कर लेती है; वह परमात्मा बन जाती है। - जैनदर्शन यह मानता है कि प्रत्येक आत्मा स्वरूपतः परमात्मा ही है। कर्मावरण के कारण ही उसकी आध्यात्मिक शक्तियाँ कुण्ठित हैं और वह संसार में परिभ्रमण कर रही है। जिस प्रकार बीज जब तक अपने आवरण को नहीं तोड़ता है, तब तक वह वृक्ष नहीं बन पाता है, उसी प्रकार यह आत्मा भी कर्मरूपी आवरण को जब तक नहीं तोड़ती है, तब तक वह परमात्मस्वरूप को प्राप्त नहीं होती है। जैनदर्शन यह मानता है कि जब तक यह आत्मा कर्मावरण के निमित्त से विषयोन्मुख बनी हुई है और उसने संसारिक भोगों की उपलब्धि को ही अपना चरम् लक्ष्य बना रखा है, तब तक उसको परमात्मस्वरूप उपलब्ध नहीं होता। त्रिविध आत्मा की अवधारणा हमें यह बताती है कि जीव को शिव या आत्मा को परमात्मा बनने के लिए उसे अपनी बहिर्मुखी प्रवृत्तियों को छोड़कर अन्तर्मुख होना पड़ेगा। अन्तर्मुख होने का तात्पर्य यह है कि अपने में रहे हुए विकारों और वासनाओं को देखें और उन्हें साधना के माध्यम से दूर करे; तभी वह परमात्मपद को प्राप्त कर सकेगा। वस्तुतः बहिर्मुखी प्रवृत्तियों को छोड़कर अन्तर्मुखी बनकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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