SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार ३५६ लक्ष्मीवल्लभगणि ने भी सिद्धों के १५ भेदों का वर्णन किया है।६७ सिद्ध परमात्मा के १५ भेद निम्न प्रकार से हैं : १ जिनसिद्ध; २. अजिनसिद्ध; ३. तीर्थसिद्ध; ४. अतीर्थसिद्ध; ५. गृहस्थलिंगसिद्ध; ६. अन्यलिंगसिद्ध; ७. स्वलिंगसिद्ध; ८. स्त्रीलिंगसिद्ध; ६. पुरुषलिंगसिद्ध; १०. नपुंसकलिंगसिद्ध; ११. प्रत्येकबुद्धसिद्ध; १२. स्वयंबुद्धसिद्ध; १३. बुद्धबोधितसिद्ध; १४. एकसिद्ध; और १५. अनेकसिद्ध। सिद्धों के भेद के सन्दर्भ में श्वेताम्बर एवं दिगम्बरों का मतभेद __ हम पूर्व में यह स्पष्ट कर चुके हैं कि स्वरूप की अपेक्षा से सिद्धों में किसी भी प्रकार का भेद करना सम्भव नहीं है। सिद्धों में श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में जो भेद किये जाते हैं, वे उपचार से किये जाते हैं। इन भेदों का मूलभूत आधार सिद्धत्व की प्राप्ति के पूर्व की अवस्था ही होती है। सिद्धत्व को प्राप्त करने के पूर्व की अवस्था में व्यक्ति किस पर्याय आदि में था इसे लेकर ही भेद किये जाते हैं। सिद्धों में पूर्व पर्याय की अपेक्षा से जो भेद किये जाते हैं, उनको लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में किंचित् मतभेद देखा जाता है। सर्वप्रथम श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में इस बात को लेकर यह मतभेद है कि स्त्री पर्याय से तद्भव में मुक्ति होती है या नहीं होती है। श्वेताम्बर परम्परा यह मानती है कि स्त्री पर्याय से तद्भव में मुक्ति सम्भव है, जबकि दिगम्बर परम्परा स्पष्ट रूप से इसका विरोध करती है। उसके अनुसार स्त्री पूर्ण परिग्रह का त्याग करने में समर्थ नहीं है। वह अचेल नहीं हो सकती, अतः स्त्री की तद्भव मुक्ति सम्भव नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा में स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग सिद्ध की जो मान्यताएँ हैं वे दिगम्बर परम्परा को स्वीकार नहीं है। उनके अनुसार मुक्ति केवल पुरुष पर्याय से ही है। इस प्रकार वे स्त्रीलिंग सिद्ध और नपुंसकलिंग - इन दो भेदों को स्वीकार नहीं करते। यद्यपि वे ये मानते हैं कि स्त्री अथवा नपुंसक अगले जन्म में पुरुष पर्याय को प्राप्त कर सिद्ध हो सकते हैं, किन्तु उनकी तद्भव में मुक्ति सम्भव नहीं है। १६७ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३३५७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy