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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
अनिर्वचनीय है।६२ आचार्य नेमिचन्द्र का कहना है कि सिद्धों के इन अष्टगुणों का विधान केवल सिद्धों के स्वरूप के सम्बन्ध से जो एकान्तिक मान्यताएँ हैं, उनके निषेध के लिये है।६३ सिद्धात्मा में केवलज्ञान, केवलदर्शन रूप में ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग को स्वीकार करके उन्होंने सिद्धात्मा को जडत्र माननेवाले वैभाषिक, बौद्धों और न्याय-वैशेषिकों की धारणा का प्रतिषेध किया है। इस प्रकार सिद्धात्मा के अस्तित्व को स्वीकार कर मोक्ष को अभावात्मक रूप में मानने वाले चार्वाक एवं सौत्रान्तिक बौद्धों की मान्यता का निरसन किया है। इस प्रकार सिद्धों के गुणों का यह विधान भी निषेध के लिये है।६४
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५.११ सिद्ध परमात्मा के पन्द्रह भेद :
सिद्ध परमात्मा की आत्मा स्वस्वरूप एवं लक्षण की अपेक्षा से तो एक ही प्रकार की है। उनमें कोई भेद नहीं होता, किन्तु जिस पर्याय से वे आत्माएँ सिद्ध होती हैं, उस पूर्वपर्याय की अपेक्षा से उनके भेद किये गये हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में सिद्ध परमात्मा के छः भेद प्राप्त होते हैं।'६५ यह विभाजन इसमें लिंग एवं वेश के आधार पर किया गया है :
१. स्त्रीलिंगसिद्ध; २. पुरुषलिंगसिद्ध; ३. नपुंसकलिंगसिद्ध; ४. स्वलिंगसिद्ध; ५. अन्यलिंगसिद्ध; और ६. गृहलिंगसिद्ध ।
प्रज्ञापना, नन्दीसूत्र एवं नवतत्वप्रकरणादि परवर्ती ग्रन्थों में सिद्धों के १५ भेद प्राप्त होते हैं।६६ उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार
१६२ (क) 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १, पृ. ४२१ ।
-डॉ. सागरमल जैन । (ख) राईदेवसीय प्रतिक्रमण सूत्र (भावार्थ सहित विवेचन) । १६३ गोम्मटसार-जीवकाण्ड ६६ । १६४ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १, पृ. ४२१ ।
-डॉ. सागरमल जैन । १६५ 'इत्थी पुरिससिद्धा य तहेवय य नपुंसगा।
सलिंगे अन्नलिंगे य, गिहिलिंगे तहेव य ।। ४६ ।।' -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन ३६ । १६६ (क) प्रज्ञापनासूत्र १/१२ ।
(ख) नन्दीसूत्र ३१ । (ग) नवतत्व प्रकरण गा. ५५ एवं ५६ ।
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