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________________ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा ५२ है, फिर भी वह इन्द्रियों से अज्ञेय ही रहती है; वही परमात्मा है । २ इस गाथा में भी योगीन्दुदेव ने आत्मा को ही परमात्मा कहा है । जिस प्रकार मण्डप के आधार से लता रहती है उसी प्रकार परमात्मा का ज्ञान भी ज्ञेय पदार्थों के आधार पर ही रहता है । ज्ञेय पर आधारित होते हुए भी परमात्मा का ज्ञान ज्ञातास्वरूप निजगुण है । ३ यद्यपि कर्मों के कारण आत्मा के ज्ञानादिगुण प्रकट होते हैं और नष्ट होते हैं किन्तु निश्चयदृष्टि से आत्मा का अनन्तज्ञानादि गुण स्वस्वरूप न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है । ४ यद्यपि ज्ञानावरणादि कर्म आत्मा के अनन्तचतुष्टय की अभिव्यक्ति को रोकते हैं किन्तु शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से वे कर्म उसके अनन्तचतुष्टय रूप परमात्मस्वरूप को कभी भी अन्यथा करने में समर्थ नही हैं । ५५ जिस प्रकार बादल सूर्य के प्रकाश को आवृत्त करते हैं, ऐसा कहा जाता है, किन्तु बादलों से परे सूर्य सदैव ही वैसा चमकता रहता है, जैसा वह है । वैसे ही वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप आत्मा परमात्मा में एकाकार होकर, मोहरूपी मेघ समूह का नाश करके, मुनिवस्था में प्रवेश करके, वीतराग स्वसंवेदनज्ञान की प्राप्ति करके, स्व-पर के सर्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से केवलज्ञान प्रकाशित करते हैं एवं ऐसे केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य, इन अनन्तचतुष्टय से युक्त परमात्मा ही ध्यान करने योग्य हैं । ६ ५६ ३०४ (क) 'जो णिय - करणहि पंचहिं वि पंच वि विसय मुणेइ । मुणिउ ण पंचहिं- पंचहिं वि सो परमप्पु हवेइ ।। ४५ ।। ' (ख) 'जसु परमत्थे बंधु णवि जोइय ण वि संसारू । सो परमप्प जाणि तुहुं मणि मिल्लिवि ववहारू ।। ४६ ।। ' ५३ 'णेयाभावे विल्लि जिम थक्कइ णाणु वलेवि । मुक्कहं जसु पय बिंबियउ परम सहाउ भणेवि ।। ४७ ।।' 'कम्महिं जासु जणंतहिं वि णिउ णिउ कज्जु सया वि । किं पि ण जाणियउ हरिउ णवि सो परमप्पउ भावि ।। ४८ ।।' ५५ 'कम्म- बिद्धु वि होइ गवि जो फुडु कम्मु कया वि । कम्मुवि जो ण कया वि फुडु सो परमप्पउ भावि ।। ४६ ।।' (क) 'अप्पु पयासइ अप्पु परू जिम अंबरि रवि-राउ । जोइय एत्थु म भंति करि एहउ वत्थु सहाउ ।। १०१ ।। ' (ख) 'जोइय णिय - मणि णिम्मलए पर दीसइ सिउ संतु । अंबरि णिम्मलि घण रहिए भाणु जि जेम फुरंतु ।। ११६ ।। ' ५२ ५४ ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only - वही -वही । -वही । -वही । -वही ! - परमात्मप्रकाश १ । -वही । www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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