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परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार
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है । वह अरिहन्त परमात्मा संसार में होकर भी संसार से उसी प्रकार भिन्न हैं जैसे नेत्र पदार्थों को देखते हुए भी उनसे भिन्न होते है । वह अरिहन्त परमात्मा देह में निवास करते हुए भी देह से अलिप्त है। उसके इस वीतराग निर्विकल्प और अतीन्द्रिय आनन्दमय स्वरूप को परम समाधिपूर्वक महातप के बिना नहीं जाना जा सकता।”४६ योगीन्दुदेव इस तथ्य को पुष्ट करते हुए कहते हैं कि यह आत्मा ही परमात्मा है । वे परमात्मा संसाररूपी बेल (वल्लरी) का नाश करने वाले हैं। वे आगे कहते हैं कि जिसके देह में रहने के कारण इन्द्रियग्राम रहता है और जिसके चले जाने से वह इन्द्रियग्राम उजड़ जाता है अर्थात् जिसके शरीर में रहने पर इन्द्रियाँ अपना काम करती हैं और जिसके शरीर का त्याग कर देने पर इन्द्रियों का कार्य करना सम्भव नहीं होता; ऐसी आत्मा ही अपने शुद्धस्वरूप में परमात्मा है ।" जो आत्मा पाँचों इन्द्रियों के माध्यम से रूप, रस, गन्ध आदि विषयों का स्पर्श करती
४६ 'जित्यु ण इंदिय सुह दुहइँ जित्थु ण मण वावारू ।
वसई
सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ अण्णु परिं अवहारू ।। २८ ।। ' ४७ 'देहादेहहिं जो भेयाभेय - गए । सो अप्पा मुणि जीव तुहुं किं अण्णें बहुए ।। २६ ।।' 'जीवाजीव म एक्कु करि लक्खण भेएँ भेउ ।
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जो परू सो परू भणमि मुणि अप्पा अप्पुअ भेउ ।। ३० ।।'
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'अणु अििदउ णाणमउ मुत्ति विरहिउ चिमित्तु । अप्पा इंदिय-विसउ णवि लक्खणु एहु णिरुत्तु ।। ३१ ।। ' (क) 'भव - तणु भोय विरत्त मणु जो अप्पा झााए ।
तासु गुरूक्की वेल्लडी संसारिणि तुटूटेइ ।। ३२ ।।' (ख) 'देहादेवलि जो वसइ देउ अणाद-अणंतु ।”
केवल - णाण - फुरंत - तणु सो परमप्पु णिभंतु ।। ३३ ।।' (ग) 'देहे वसंतु वि णवि छिवइ नियमें देहु वि जो जि । देहें छिप्पइ जो वि वि मुणि परमप्पउ सो जि ।। ३४ ।। ५१ ‘देहि वसंते जेण पर इंदिय-गामु वसेइ ।
उव्वसु होइ गएण फुडु सो परमप्पु हवेइ ।। ४४ ।।'
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-परमात्मप्रकाश १ ।
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