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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
समाधिरूप निर्विकल्प ध्यान से ही गम्य है।"१ भावात्मक दृष्टि से योगीन्दुदेव ने उस परमात्मा को केवलज्ञानमय, केवलदर्शनमय, मात्र आनन्दस्वरूप और अनन्त शक्तिसम्पन्न कहा है। परमात्मस्वरूप को व्याख्यायित करते हुए उन्होंने परमात्मा के दो भेद बताये हैं :
१. सकल परमात्मा तथा २. निष्कल परमात्मा। शरीर सहित जो अरिहन्त परमात्मा हैं वे साकाररूप सकल परमात्मा हैं एवं जिनके शरीर नहीं है ऐसे निराकार सिद्ध परमेष्ठि निष्कल परमात्मा हैं। वे सकल परमात्मा से भी उत्तम कहे गए हैं। यहाँ पर योगीन्ददेव सिद्ध परमात्मा के लक्षणों को अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं कि “वह औदारिक आदि पाँचों शरीर से रहित निराकार शुद्ध-बुद्ध सिद्ध परमात्मा है। जैसे सिद्धालय में स्थित सिद्ध परमात्मा हैं वैसे ही देहालय में भी विराजमान अरिहन्त परमात्मा हैं।"४३ अरिहन्त परमात्मा व्यवहारनय से तो इस देह में रहते हैं किन्तु निश्चयनय से वे अपने स्वरूप में ही रहते हैं।४४ जो देह में रहते हुए भी निश्चय से देह में नहीं होते, उन्हें शुद्धात्मा या परमात्मा कहा गया है।
अरिहन्त परमात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए योगीन्दुदेव कहते हैं कि "जिसके केवलज्ञान में यह संसार प्रतिभासित हो रहा है और इस संसार में ही स्थित हैं फिर भी उससे तन्मय नहीं
-वही।
-वही।
४१ 'वेयहिं सत्थहिं इंदियहिं जो जिय मुणहु ण जाइ ।
णिम्मल झाणहं जो विसउ सो परमप्पु अणाइ ।। २३ ।।' ४२ 'केवल-दसण-णाणमउ केवल-सुक्ख-सहाउ ।
केवल- वीरिउ सो मुणहि जो जि परावरू भाउ ।। २४ ।।' (क) 'एयहिँ जुत्तउ लक्खणहिं जो परू णिक्कलु देउ ।
सो तहिं णिवसइ परम-पइ जो तइलोयहं झेउ ।। २५ ।।' (ख) 'देहे वसंतु वि णवि छिवइ णियमें देहु वि जो जि ।
देहें छिप्पइ जो वि णवि मुणि परमप्पउ सो जि ।। ३४ ।।' ४४ 'जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहिं णिवसइ देउ ।
तेहउ णिवसइ बंभु परू देहहँ मं करि भेउ ।। २६ ।।' १५ 'जें दिठे तुट्टति लहु कम्मइं पुब्ब-कियाई ।
सो परू जाणहि जोइया देहि वसंतु ण काइँ ।। २७ ।।'
-वही ।
-वही ।
-वही ।
-वही ।
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