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परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार
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और ज्ञान उसी प्रकार से युगपत् होता है; जैसे और ताप युगपत् होता है । यहाँ आचार्य केवली के के युगपत् होने के पक्ष का समर्थन करते हैं । यदि हम यह मानते हैं कि ज्ञान 'पर' का प्रकाशक है, दर्शन 'स्व' का प्रकाशक है और आत्मा 'स्व - पर' प्रकाशक है; तो उसमें विरोध आता है। ज्ञान को 'पर' का प्रकाशक मानने पर ज्ञान और दर्शन भिन्न-भिन्न हो जायेंगे; क्योंकि दर्शन 'पर' का प्रकाशक नहीं है । अतः वह पर-प्रकाशक ज्ञान से भिन्न होगा । पुनः यदि आत्मा को पर-प्रकाशक मानेंगे तो दर्शन आत्मा से ही भिन्न होगा; क्योंकि दर्शन पर - प्रकाशक नहीं है । अतः केवली भगवान की आत्मा तथा उनका ज्ञान और दर्शन पर प्रकाशक है; यह मात्र व्यवहार नय का वचन है । निश्चयनय से तो केवली भगवान का ज्ञान और दर्शन सभी आत्म-प्रकाशक ही है ।
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निश्चय से तो केवली भगवान आत्मस्वरूप के ही ज्ञाताद्रष्टा हैं न कि लोकालोक के वस्तुतः आत्मा ज्ञानस्वरूप है और इसलिए आत्मा अपने को ही जानती है क्योंकि यदि ज्ञान आत्मा न जाने तो वह आत्मा से भिन्न होगा, किन्तु आत्मा से भिन्न ज्ञान और दर्शन तथा ज्ञान और दर्शन से भिन्न आत्मा सम्भव नहीं है । फिर भी केवली का ज्ञान विमर्श या विकल्पपूर्वक नहीं होता है । न केवल उनका ज्ञान अपितु उनकी कोई भी क्रिया इच्छापूर्वक नहीं होती है । जो क्रियाएं इच्छापूर्वक होती हैं, वे बन्धन का कारण होती हैं;
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'जुगवं वट्टइ गाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा । दिणयरयपयासतावं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ।। १६० ।।' (क) ' णाणं परप्पयासं दिट्ठी अप्पप्पयासया चेव ।
अप्पा सपरपयासो होदि त्ति हि मण्णसे जदि हि ।। १६१ ।।' ( ख ) ' गाणं परप्पयासं तइया णाणेण दंसणं भिण्णं ।
ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा ।। १६२ ।। ' ( स ) 'अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं ।
ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा ।। १६३ ।' ( ग ) ' णाणं परप्पयासं ववहारणयेण दंसणं तम्हा ।
अप्पा परप्पासो ववहारणयेण दंसणं तम्हा ।। १६४ ।। ' (घ) 'णाणं अप्पपयासं णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा ।
अप्पा अप्पपयासो णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा ।। १६५ ।। '
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सूर्य का प्रकाश ज्ञान और दर्शन वे कहते हैं कि
- नियमसार ।
- नियमसार १२ ।
-वही ।
-वही ।
-वही ।
-वही |
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